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________________ ५२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०१ कि "स्त्रियों-जैसा चित्त रखनेवाले पुरुष भी शीघ्र मोह को जीत लेते हैं', वह निरर्थक जान पड़ता है। इस कथन का महत्त्व दिगम्बर विद्वानों के मुख से उच्चरत होने में ही है, जो स्त्री को मुक्ति की अधिकारिणी नहीं मानते फिर भी स्त्रीचित्तवाले भावस्त्रीपुरुषों के लिये मुक्ति का विधान करते हैं। अतः इस वाक्य के प्रणेता सिद्धसेन दिगम्बर होने चाहिये, न कि श्वेताम्बर, और यह समझना चाहिये कि उन्होंने इसी द्वात्रिंशिका के छठे पद्य में यशोदाप्रिय पद के साथ जिस घटना का उल्लेख किया है, वह अलङ्कार की प्रधानता को लिये हुए परवक्तव्य के रूप में उसी प्रकार का कथन है, जिस प्रकार कि ईश्वर को कर्ता-हर्ता न माननेवाला एक जैन कवि ईश्वर को उलाहना अथवा उसकी रचना में दोष देता हुआ लिखता है हे विधि! भूल भई तुमतें, समुझे न कहाँ कस्तूरि बनाई ! दीन कुरङ्गन के तन में, तृन दन्त धरै करुना नहिं आई !! क्यों न रची तिन जीभनि जे रस-काव्य करें पर को दुखदाई ! साधु-अनुग्रह दुर्जन-दण्ड, दुहूँ सधते विसरी चतुराई !! "इस तरह सन्मति के कर्ता सिद्धसेन को श्वेताम्बर सिद्ध करने के लिये जो द्वात्रिंशिकाओं के उक्त दो पद्य उपस्थित किये गये हैं, उनसे सन्मतिकार सिद्धसेन का श्वेताम्बर सिद्ध होना तो दूर रहा, उन द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन का भी श्वेताम्बर होना प्रमाणित नहीं होता, जिनके उक्त दोनों पद्य अङ्गरूप हैं। श्वेताम्बरत्व की सिद्धि के लिये दूसरा और कोई प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया और इससे यह भी साफ मालूम होता है कि स्वयं सन्मतिसूत्र में ऐसी कोई बात नहीं है, जिससे उसे दिगम्बरकृति न कहकर श्वेताम्बरकृति कहा जा सके, अन्यथा उसे जरूर उपस्थित किया जाता। सन्मति में ज्ञान-दर्शनोपयोग के अभेदवाद की जो खास बात है, वह दिगम्बरमान्यता के अधिक निकट है, दिगम्बरों के युगपद्वाद पर से ही फलित होती है, न कि श्वेताम्बरों के क्रमवाद पर से, जिसके खण्डन में युगपद्वाद की दलीलों को सन्मति में अपनाया गया है। और श्रद्धात्मक दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान के अभेदवाद की जो बात सन्मति द्वितीयकाण्ड की गाथा ३२-३३ में कही गई है, उसके बीज श्री कुन्दकुन्दाचार्य के समयसार ग्रन्थ में पाये जाते हैं। इन बीजों की बात को पं० सुखलाल जी आदि ने भी 'सन्मति' की प्रस्तावना (पृ.६२) में स्वीकार किया है, लिखा है कि "सन्मतिना (काण्ड २/ गाथा ३२) श्रद्धा-दर्शन अने ज्ञानना ऐक्यवादनुं बीज कुंदकुंदना समयसार (गा.११३) मां ७° स्पष्ट छ।" इसके सिवाय, समयसार की 'जो पस्सदि अप्पाणं' नाम की ७०. यहाँ जिस गाथा की सूचना की गई है, वह 'दंसणणाणचरित्ताणि' नाम की १६वीं गाथा है। इसके अतिरिक्त 'ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं' (७), 'सम्मइंसणणाणं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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