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अ० १८ / प्र० १
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५२५ सैन्य सजाकर स्वर्ग में जाना सैद्धान्तिक मान्यताओं के विरुद्ध जान पड़ता है। दूसरे, यह कथन परवक्तव्य के रूप में भी हो सकता है और आगमसूत्रों में कितना ही कथन परवक्तव्य के रूप में पाया जाता है, इसकी स्पष्ट सूचना सिद्धसेनाचार्य ने सन्मति - सूत्र में की है और लिखा है कि ज्ञातापुरुष को (युक्ति - प्रमाण- द्वारा) अर्थ की ङ्गति के अनुसार ही उनकी व्याख्या करनी चाहिये ।" ६९ (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता. / पृ.१६३-१६४) ।
"यदि किसी तरह पर यह मान लिया जाय कि उक्त दोनों पद्यों में जिन घटनाओं का उल्लेख है, वे परवक्तव्य या अलङ्कारादि के रूप में न होकर शुद्ध श्वेताम्बरीय मान्यताएँ हैं, तो इससे केवल इतना ही फलित हो सकता है कि इन दोनों द्वात्रिंशिकाओं (२, ५) के कर्ता जो सिद्धसेन हैं, वे श्वेताम्बर थे। इससे अधिक यह फलित नहीं हो सकता कि दूसरी द्वात्रिंशिकाओं तथा सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन भी श्वेताम्बर थे, जब तक कि प्रबल युक्तियों के बल पर इन सब ग्रन्थों का कर्ता एक ही सिद्धसेन को सिद्ध न कर दिया जाय, परन्तु वह सिद्ध नहीं है, जैसा कि पिछले एक प्रकरण में व्यक्त किया जा चुका है। और फिर इस के फलित होने में भी एक बाधा और आती है और वह यह कि इन द्वात्रिंशिकाओं में कोई कोई बात ऐसी भी पाई जाती है, जो इनके शुद्ध श्वेताम्बरकृतियाँ होने पर नहीं बनती, जिसका एक उदाहरण तो इन दोनों में उपयोगद्वय के युगपवाद का प्रतिपादन है, जिसे पहले प्रदर्शित किया जा चुका है और जो दिगम्बरपरम्परा का सर्वोपरि मान्य सिद्धान्त है तथा श्वेताम्बर - आगमों की क्रमवाद - मान्यता के विरुद्ध जाता है। दूसरा उदाहरण पाँचवीं द्वात्रिंशिका का निम्न वाक्य है
नाथ त्वया देशितसत्पथस्थाः स्त्रीचेतसोऽप्याशु जयन्ति मोहम् । नैवाऽन्यथा शीघ्रगतिर्यथा गां प्राचीं यियासुर्विपरीतयायी ॥ २५ ॥
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" इसके पूर्वार्ध में बतलाया है कि " हे नाथ! वीरजिन! आपके बतलाये हुए
सन्मार्ग पर स्थित वे पुरुष भी शीघ्र मोह को जीत लेते हैं (मोहनीयकर्म के सम्बन्ध का अपने आत्मा से पूर्णतः विच्छेद कर देते हैं) जो स्त्रीचेतसः होते हैं (स्त्रियों जैसा चित्त (भाव) रखते हैं) अर्थात् भावस्त्री होते हैं।" और इससे यह साफ ध्वनित है कि स्त्रियाँ मोह को पूर्णतः जीतने में समर्थ नहीं होतीं, तभी स्त्रीचित्त के लिये मोह को जीतने की बात गौरव को प्राप्त होती है। श्वेताम्बरसम्प्रदाय में जब स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह मोह पर पूर्ण विजय प्राप्त करके उसी भव से मुक्ति को प्राप्त कर सकती हैं, तब एक श्वेताम्बर विद्वान् के इस कथन में कोई महत्त्व मालूम नहीं होता
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६९. परवत्तव्वयपक्खा अविसिट्ठा तेसु तेसु सुत्तेसु ।
अत्थगईअ उ तेसिं वियंजणं जाणओ कुणइ ॥ २/१८ ॥ सन्मतिसूत्र |
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