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________________ ५२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ कि 'वे श्वेताम्बर थे, दिगम्बर नहीं' (पृ. १०४)। परन्तु इस बात को सिद्ध करनेवाला कोई समर्थ कारण नहीं बतलाया, कारणरूप में केवल इतना ही निर्देश किया है कि 'महावीर के गृहस्थाश्रम तथा चमरेन्द्र के शरणागमन की बात सिद्धसेन ने वर्णन की है, जो दिगम्बरपरम्परा में मान्य नहीं, किन्तु श्वेताम्बर-आगमों के द्वारा निर्विवादरूप से मान्य है।' और इसके लिये फुटनोट में ५वीं द्वात्रिंशिका के छठे और दूसरी द्वात्रिंशिका के तीसरे पद्य को देखने की प्रेरणा की है, जो निम्न प्रकार हैं अनेकजन्मान्तरभग्नमानः स्मरो यशोदाप्रिय यत्पुरस्ते। चचार निभकशरस्तमर्थं त्वमेव विद्यासु नयज्ञ कोऽन्यः॥ ५/६॥ कृत्वा नवं सुरवधूभयरोमहर्षं दैत्याधिपः शतमुखभ्रकुटीवितानः। त्वत्पादशान्तिगृहसंश्रयलब्धचेता लज्जातनुश्रुति हरेः कुलिशं चकार॥ २/३॥ "इनमें से प्रथम पद्य में लिखा है कि "हे यशोदाप्रिय! दूसरे अनेक जन्मों में भग्नमान हुआ कामदेव निर्लज्जतारूपी बाण को लिये हुए जो आपके सामने कुछ चला है, उसके अर्थ को आप ही नय के ज्ञाता जानते हैं, दूसरा और कौन जान सकता है? अर्थात् यशोदा के साथ आपके वैवाहिक सम्बन्ध अथवा रहस्य को समझने के लिये हम असमर्थ हैं।" दूसरे पद्य में देवाऽसुर-संग्राम के रूप में एक घटना का उल्लेख है, "जिसमें दैत्याधिप असुरेन्द्र ने सुरवधुओं को भयभीतकर उनके रोंगटे खड़े कर दिये। इससे इन्द्र की भ्रकुटी तन गई और उसने उस पर वज्र छोड़ा, असुरेन्द्र ने भागकर वीर भगवान् के चरणों का आश्रय लिया, जो कि शान्ति के धाम हैं और उनके प्रभाव से वह इन्द्र के वज्र को लज्जा से क्षीणद्युति करने में समर्थ हुआ।" "अलंकृत भाषा में लिखी गई इन दोनों पौराणिक घटनाओं का श्वेताम्बरसिद्धान्तों के साथ कोई खास सम्बन्ध नहीं है और इसलिये इनके इस रूप में उल्लेख मात्र पर से यह नहीं कहा जा सकता कि इन पद्यों के लेखक सिद्धसेन वास्तव में यशोदा के साथ भगवान् महावीर का विवाह होना और असुरेन्द्र (चमरेन्द्र) का सेना सजाकर तथा अपना भयंकर रूप बनाकर युद्ध के लिये स्वर्ग में जाना आदि मानते थे, और इसलिये श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के आचार्य थे, क्योंकि प्रथम तो श्वेताम्बरों के आवश्यकनियुक्ति आदि कुछ प्राचीन आगमों में भी दिगम्बर आगमों की तरह भगवान् महावीर को कुमार श्रमण के रूप में अविवाहित प्रतिपादित किया है६८ और असुरकुमारजातिविशिष्ट-भवनवासी देवों के अधिपति चमरेन्द्र का युद्ध की भावना को लिये हुए ६८. देखिए , आवश्यकनियुक्ति गाथा २२१, २२२, २२६ तथा अनेकान्त / वर्ष ४/ कि. ११-१२/ पृ. ५७९ पर प्रकाशित 'श्वेताम्बरों में भी भगवान् महावीर के अविवाहित होने की मान्यता' नामक लेख। (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./पृ. १६४)। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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