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________________ ६५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२० / प्र०१ "उन बुद्धिमान् वरांग ने मिथ्यात्व और कषायरूपी दोषों को धो डाला। लोभ को भी स्वयं विनष्ट कर दिया तथा उस जातरूप (जैसा जन्म के समय रहता है वैसे नग्नरूप) को धारण कर लिया, जो विषयों में आसक्त अन्य लोगों के लिए धारण करना संभव नहीं है।" (२९/८७)। __ यहाँ हम देखते हैं कि राजा वरांग मुनिदीक्षा ग्रहण करते समय सम्पूर्ण राज्य और वैभव के साथ वस्त्र और आभूषण भी त्याग देते हैं तथा बिलकुल वैसा नग्न रूप धारण कर लेते हैं, जैसा गर्भ से निकले शिशु का होता है। इससे स्पष्ट है कि वरांगचरित में राजा-महाराजाओं के लिए भी वैकल्पिक सवस्त्र मुनिदीक्षा का विधान नहीं है। यह यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्त का स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन है। २.२. वरांगियों के वर्णन को वरांग का वर्णन कहना छलवाद' किन्तु 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने राजा वरांग की वरांगी (सुन्दर अंगोंवाली) रानियों के आर्यिकादीक्षा-वर्णन को राजा वरांग का मुनिदीक्षा-वर्णन समझ लिया है और रानियों के द्वारा आर्यिका-दीक्षा हेतु धारण किये गये श्वेतवस्त्र को राजा वरांग के द्वारा मुनिदीक्षा हेतु धारण किया गया मानकर वरांगचरित को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। वरांगचरित के जिन पद्यों में रानियों की दीक्षा का वर्णन है, वे इस प्रकार हैं क्षितीन्द्रपल्यः कमलायताक्ष्यो विचित्ररत्नप्रविभूषिताङ्गयः। परीत्य भक्त्यार्पितचेतसस्ता नमः प्रकुर्वन्मुनये प्रहृष्टाः॥ २९/९२॥ ततो हि गत्वा श्रमणार्जिकानां समीपमभ्येत्य कृतोपचाराः। विविक्तदेशे विगतानुरागा जहुर्वराङ्गयो वरभूषणानि॥ २९ / ९३॥ गुणांश्च शीलानि तपांसि चैव प्रबुद्धतत्त्वाः सितशुभ्रवस्त्राः। सगृह्य सम्यग्वरभूषणानि जिनेन्द्रमार्गाभिरता बभूवुः॥ २९/९४॥ मन्त्रीश्वरामात्यपुरोहितानां पुरप्रधानर्द्धिमतां गृहिण्यः। नृपाङ्गनाभिः सुगतिप्रियाभिर्दिदीक्षरे ताभिरमा तरुण्यः॥ २९/९५॥ अनुवाद-"राजा वरांग के साथ उनकी रानियाँ भी वरदत्त-केवली के दर्शन करने के लिए गयी थीं। उनकी आँखें कमलों के समान मनोहर थीं। उनके अंग विचित्र रत्नों से विभूषित थे। उन्होंने प्रसन्न होकर भक्तिभाव से मुनि वरदत्त की प्रदक्षिणा कर उन्हें नमस्कार किया।" (२९/९२)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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