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________________ अ०२० / प्र०१ वराङ्गचरित / ६५७ सर्वत्र निर्ग्रन्थ या दिगम्बर को ही 'मुनि' शब्द से अभिहित किया गया है। यथा व्यपेतमात्सर्यमदाभ्यसूयाः सत्यव्रताः क्षान्तिदयोपपन्नाः। सन्तुष्टशीलाः शुचयो विनीता निर्ग्रन्थशूरा इह पात्रभूताः॥ ७/५०॥ अनुवाद-"जिनके मात्सर्य, मद और असूया दोष नष्ट हो गये हैं, जो सत्यव्रती हैं, क्षमा और दया से युक्त हैं तथा सन्तोषी, निर्लोभ और विनीत हैं, वे ही निर्ग्रन्थमुनि आहारादिदान के लिए उत्तम पात्र हैं।" निम्नलिखित श्लोक में कहा गया है कि 'वरांग' आदि मुनि हेमन्त ऋतु में दिगम्बर होते हुए भी अभ्रावकाशयोग (खुले आकाश के नीचे योग) धारण करते थे हेमन्तकाले धृतिबद्धकक्षा दिगम्बरा ह्यभ्रवकाशयोगाः। _ हिमोत्कारोन्मिश्रितशीतवायुं प्रसेहिरेऽत्यर्थमपारधैर्याः॥ ३० / ३२॥ इन कथनों से स्पष्ट है कि वरांगचरित में दिगम्बरों को ही मुनि कहा गया है, वस्त्रधारियों को नहीं। २.१. राजा वरांग की दैगम्बरी दीक्षा वरदत्त केवली के उपदेश को सुनकर राजा वरांग दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण करते हैं। इसका वर्णन जटासिंहनन्दी ने निम्नलिखित श्लोकों में किया है विशालबुद्धिः श्रुतधर्मतत्त्वः प्रशान्तरागः स्थिरधीः प्रकृत्या। तत्याज निर्माल्यमिवात्मराज्यमन्तःपुरं नाटकमर्थसारम्॥ २९/८५॥ विभूषणाच्छादनवाहनानि पुराकरग्राममडम्बखेडैः। आजीवितान्तात्प्रजहौ स बाह्यमभ्यन्तरांस्तांश्च परिग्रहाद्यान्॥ २९/८६॥ अपास्य मिथ्यात्वकषायदोषान्प्रकृत्य लोभं स्वयमेव तत्र। जग्राह धीमानथ जातरूपमन्यैरशक्यं विषयेषु लोलैः॥ २९/८७॥ अनुवाद-"राजा वरांग अत्यधिक बुद्धिमान् थे। धर्म के तत्त्व को उन्होंने सुना और समझा था। उनका राग शान्त हो गया था। उनकी बुद्धि स्वभाव से ही स्थिर थी। अत एव उन्होंने अपने राज्य को इस प्रकार त्याग दिया, जैसे कोई निर्माल्य द्रव्य को त्याग देता है और अपने गुणरूपयुक्त अन्तःपुर को ऐसे भूल गये, जैसे ज्ञानी नाटक के दृश्यों को भूल जाता है। (२९/८५) "उन्होंने आभूषण, आच्छादन (वस्त्र), वाहन, पुर, आकर, ग्राम, मडम्ब और खेड़ा, इन समस्त बाह्य परिग्रहों को तथा इनके कारणभूत आभ्यन्तर परिग्रह को जीवनपर्यन्त के लिए त्याग दिया।" (२९/८६) Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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