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________________ ४६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र० २ बाद की रचना सिद्ध करने की चेष्टा की है। किन्तु उन्होंने आगमविच्छेद- प्रतिपादक गाथाओं (४/१४८८-१५०४) को प्रक्षिप्त स्वीकार नहीं किया । तथा उन्होंने अपने लेख में तिलोयपण्णत्ती के जिन अंशों को धवला से प्रक्षिप्त या संगृहीत माना है, उन्हें पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने तिलोयपण्णत्ती से ही धवला में संगृहीत सिद्ध किया है । ३२ अतः प्रमाण के अभाव में उक्त गाथाओं को प्रक्षिप्त नहीं माना जा सकता। तात्पर्य यह कि आगमविच्छेद- प्रतिपादक गाथाओं को प्रक्षिप्त मानने का हेतु असत्य है। ३. यदि आगमविच्छेद- प्रतिपादक गाथाओं को प्रक्षिप्त मान लिया जाय, तो भी यह सिद्ध नहीं होता कि तिलोयपण्णत्ती यापनीयग्रन्थ है, क्योंकि उसमें सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि सभी यापनीयमतों का निषेध है, जिसके प्रमाण पूर्व में प्रस्तुत किये जा चुके हैं। ४. और यदि यह भी मान लिया जाय कि यापनीय भी आगमविच्छेद मानने लगे थे, तो भी उसमें उपर्युक्त यापनीय-मान्यताओं का निषेध होने से तिलोयपण्णत्ती का यापनीयग्रन्थ सिद्ध होना असम्भव है । ५. यापनीयों ने आगमविच्छेद स्वीकार भी नहीं किया है, क्योंकि यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने स्त्रीमुक्ति के समर्थन में मथुरागम को प्रमाणरूप में उद्धृत किया है । ३३ ६. यह कथन भी प्रामाणिक नहीं है कि जब यापनीयों का अपनी परम्परा में निर्मित ग्रन्थों से काम चलने लगा, तब उन्होंने आगमों को विच्छिन्न घोषित कर दिया, क्योंकि यापनीयपरम्परा में काम चलाने योग्य ग्रन्थों के निर्माण का कोई प्रमाण ही नहीं है। यापनीयों के केवल चार ग्रन्थों के नाम उपलब्ध होते हैं, जैसे यापनीयतन्त्र, स्त्रीनिर्वाणप्रकरण, केवलिभुक्तिप्रकरण एवं शाकटायनव्याकरण । कुछ विद्वानों ने भगवती - आराधना, मूलाचार आदि को यापनीयग्रन्थ माना है, किन्तु पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है कि वे दिगम्बराचार्यों द्वारा रचित हैं । यापनीय तो अन्त तक श्वेताम्बरग्रन्थों से ही काम चलाते रहे, यह नौवीं शताब्दी ई० में हुए पाल्यकीर्ति शाकटायन के उपर्युक्त उल्लेख से सिद्ध है। स्वयं श्वेताम्बर विद्वानों ने स्वीकार किया है कि यापनीय श्वेताम्बरआगम को प्रमाण मानते थे । ३२. देखिए, पं. जुगलकिशोर मुख्तार - कृत 'पुरातन जैन वाक्य सूची' की प्रस्तावना में (ग) 'एक नई विचारधारा और उसकी जाँच ।' (पृ. ४१-५७)। ३३. अष्टशतमेकसमये पुरुषाणामादिरागमः (माहुरागमे ) सिद्धि: ( सिद्धम् ) । स्त्रीणां न मनुष्ययोगे गौणार्थो मुख्यहानिर्वा ॥ ३४ ॥ स्त्रीनिर्वाणप्रकरण । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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