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________________ अ०२३ बृहत्कथाकोश / ७६१ २. उक्त कथानक में भद्रबाहु के लिए दिगम्बरमान्यतानुसार श्रुतकेवली शब्द का प्रयोग किया गया है। "पूर्वोक्तपूर्विणां मध्ये पञ्चमः श्रुतकेवली---भद्रबाहुरयं बटुः" (श्लोक १२-१३)। यह भी यापनीयमत के अनुकूल नहीं है, क्योंकि श्वेताम्बर-परम्परा में श्रुतकेवली के लिए चतुर्दशपूर्वधर१ विशेषण का प्रयोग मिलता है। ३. भद्रबाहुकथानक में कहा गया है कि महावीर के संघ के सभी साधु निर्ग्रन्थ (नग्न) थे, कोई भी साधु सवस्त्र-अपवादलिंगधारी नहीं था। द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के समय जब निर्ग्रन्थसाधुओं का एक वर्ग सिन्धु देश चला गया, तब वहाँ की दुर्भिक्षकालीन उपद्रवात्मक परिस्थितियों के कारण अस्थायीरूप से अर्धफालक (नग्नता को छिपाने के लिए हाथ पर लटका कर रखा जानेवाला आधा वस्त्र) धारण करने लगा। यावन्न शोभनः कालो जायते साधवः स्फुटम्। तावच्च वामहस्तेन पुरः कृत्वाऽर्धफालकम्॥ ५८॥ भिक्षापात्रं समादाय दक्षिणेन करेण च। गृहीत्वा नक्तमाहारं कुरुध्वं भोजनं दिने॥ ५९॥ यह कथन भी यापनीयमत के विरुद्ध है, क्योंकि यापनीयों की मान्यता है कि सवस्त्र अपवादलिंग भी भगवान् महावीर के द्वारा ही उपदिष्ट है। ४. उक्त कथानक में सवस्त्रता को कर्मबन्ध का कारण तथा निर्ग्रन्थता (नग्नता) को मुक्ति का हेतु प्रतिपादित करते हुए जिन मुनियों ने दुर्भिक्ष के समय अर्धफालक ग्रहण कर लिया था, उनसे उसका त्याग करने के लिए कहा जाता है हित्वार्धफालकं तूर्णं मुनयः प्रीतमानसाः। 'निर्ग्रन्थरूपतां सारामाश्रयध्वं विमुक्तये॥ ६३॥ यह उपदेश भी यापनीयमत-विरोधी है, क्योंकि यापनीयमत में माना गया है कि सवस्त्र अपवादलिंगधारी साधु भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है। ५. कथानक में कहा गया है कि उपर्युक्त उपदेश से अनेक मुक्तिकामी साधुओं ने तो अर्धफालक त्याग दिया, किन्तु कुछ शिथिलाचारी, परीषहभीरु, अज्ञानी साधुओं ने उसे त्यागने से इनकार कर दिया और जिनकल्प एवं स्थविरकल्प ऐसे दो मोक्षमार्गों की कल्पना कर निर्ग्रन्थ (नग्न) परम्परा से विपरीत स्थविरकल्प नामक सवस्त्र मोक्षमार्ग प्रचलित कर दिया २१. क-मेधाविनौ भद्रबाहुसम्भूतविजयौ मुनी। चतुर्दशपूर्वधरौ तस्य शिष्यौ बभूवतुः॥ ६/३॥ परिशिष्टपर्व। ख-आचार्य हस्तीमलजी : जैनधर्म का मौलिक इतिहास / भाग २/पृष्ठ ४१३। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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