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________________ ८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०२ हो गया। इसीलिए बृहत्कल्प के नो कप्पइ निग्गंथाण इत्यादि सूत्र में उसे सर्वविध वनस्पति के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। बृहत्कल्प के भाष्यकार ने निम्नलिखित गाथाओं में स्पष्ट किया है कि 'तालप्रलम्बसूत्र' में 'ताल' शब्द वनस्पति के किन प्रकारों का बोधक है हरिततणोसहिगुच्छा गुम्मा वल्लीलदा य रुक्खा य। एवं वणप्फदीओ तालोद्देसेण आदिट्ठा॥ इति॥ तालेदि दलेदित्तिव तलेव जादेत्ति उस्सिदो वत्ति। तालादिणो तरुत्तियवणप्फदीणं हवदि णाम॥१० अनुवाद-"ताल शब्द से हरिततृण, औषधि, गुच्छा, बेल, लता, वृक्ष इत्यादि वनस्पतियों का कथन किया गया है। 'ताल' शब्द 'तल्' धातु से निष्पन्न हुआ है। 'तल' शब्द का अर्थ ऊँचाई भी है। जो स्कन्धरूप से ऊँचा वृक्षविशेष होता है, वह ताल वृक्ष कहलाता है। 'तालादि' में 'आदि' शब्द से वृक्ष, फूल, पत्ता आदि वनस्पति अर्थ लेना चाहिए।" यदि 'तालप्रलम्ब' समास में आया 'ताल' शब्द उपर्युक्त वनस्पतियों के उपलक्षक के रूप में प्रसिद्ध न होता, तो तालप्रलम्बसूत्र में उसका प्रयोग करने से सूत्रकार का प्रयोजन सिद्ध न होता, क्योंकि कोई भी अध्येता यह न समझ पाता कि उस शब्द के द्वारा उपर्युक्त वनस्पतियों के अपक्व और अभग्न दशा में भक्षण का निषेध किया गया है। सभी की समझ में यह आता कि केवल ताड़वृक्ष के प्रलम्ब (जटा) का ही भक्षण निषिद्ध किया गया है। तथा भाष्यकार भी यह स्पष्ट न कर पाते कि उक्त समास में 'ताल' शब्द उपर्युक्त वनस्पतियों का उपलक्षक है। पुनः उक्त वनस्पतियों के उपलक्षक के रूप में लोकप्रसिद्ध न होने पर उसका यह अर्थ सर्वस्वीकार्य भी न होता। अतः वह देशामर्शकत्व का दृष्टान्त भी नहीं बन सकता था। यतः कल्पसूत्रकार ने 'तालप्रलम्ब' पद के उपलक्षकत्व को स्पष्ट किये बिना उसका उपलक्षक के रूप में प्रयोग किया है तथा भगवती-आराधनाकार ने 'आचेलक्य' के और धवलाकार ने णमोकारमंत्र-रूप मंगलसूत्र के देशामर्शकत्व की पुष्टि के लिए उसे दृष्टान्त के रूप में उपस्थित किया है,११ इससे सिद्ध है कि वह वनस्पति मात्र के उपलक्षक के रूप में लोकप्रसिद्ध था, अत एव सर्वस्वीकृत था। अर्थात् वह एक असाम्प्रदायिक प्रयोग है। अतः उसे केवल श्वेताम्बरीय ग्रन्थ (बृहत्कल्प) का विशिष्ट प्रयोग मानना युक्तिसंगत नहीं है। ११०. 'भगवती-आराधना' की 'देसामासियसुत्तं' गाथा १११७ की विजयोदयाटीका में उद्धृत। १११. देखिए , पादटिप्पणी १०८। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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