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________________ भगवती आराधना / ८५ अ० १३ / प्र० २ इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवती - आराधना को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रेमी जी द्वारा प्रस्तुत किया गया यह हेतु कि उसकी 'देसामासियसुत्तं' गाथा में जो तालपलंबसुत्तम्मि पद आया है, उस में बृहत्कल्प के सूत्र का उल्लेख है, एकदम सत्य है। असत्य होने से यह निर्णय भी असत्य है कि भगवती - आराधना यापनीयग्रन्थ है। ११ दिगम्बर मुनि भी पाणितलभोजी यापनीयपक्ष प्रेमी जी - " शिवार्य ने अपने को 'पाणितलभोजी' अर्थात् हथेलियों पर भोजन करने वाला कहा है । यह विशेषण उन्होंने अपने को श्वेताम्बरसम्प्रदाय से अलग प्रकट करने के लिए दिया है । यापनीय साधु हाथ पर ही भोजन करते थे।" (जै.सा.इ./ द्वि.सं./पृ.६९) । दिगम्बरपक्ष दिगम्बर साधु भी पाणितलभोजी होते हैं, अतः पाणितलभोजित्व यापनीय साधुओं का असाधारणधर्म या लक्षण नहीं है। इसलिए वह शिवार्य के यापनीय होने का हेतु नहीं है, अपितु हेत्वाभास है, अर्थात् हेतु जैसा दिखनेवाला अहेतु है । अतः हेत्वाभास से किया गया यह निर्णय कि शिवार्य यापनीय थे, भ्रान्तिपूर्ण है । अर्थात् शिवार्य यापनीय नहीं थे, अपितु दिगम्बर थे । वस्तुतः शिवार्य ने अपने दिगम्बरत्व को सूचित करने के लिए उक्त विशेषण का प्रयोग किया है। पण्डित परमानन्द जी शास्त्री ने इस विषय पर प्रकाश डालते हुए लिखा है " द्वितीय गाथा में प्रयुक्त हुए ग्रन्थकार के पाणिदलभोड़णा इस विशेषणपद से इतनी बात स्पष्ट हो जाती है कि आचार्य शिवकोटि ने इस ग्रन्थ की रचना उस समय की है, जब कि जैनसंघ में दिगम्बर और श्वेताम्बर भेद की उत्पत्ति हो गयी थी । उसी भेद को प्रदर्शित करने के लिए ग्रन्थकर्त्ता ने अपने साथ उक्त विशेषणपद का लगाना उचित समझा है ।" ११२ 'अनेकान्त' के सम्पादक पण्डित जुगलकिशोर जी मुख्तार ने भी ऐसा ही मत - प्रकट किया है। वे अपनी सम्पादकीय टिप्पणी में लिखते हैं ११२. 'भगवती - आराधना और शिवकोटि ' / ' अनेकान्त / वर्ष २ / किरण ६ / वीर नि.सं. २४६५ / १ अप्रैल, १९३९ / पृष्ठ ३७३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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