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________________ ७५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२३ अर्धफालक-संयुक्तमज्ञात-परमार्थकै:। ' तैरिदं कल्पितं तीर्थं कातरैः शक्तिवर्जितैः॥ ६८॥ इन श्लोकों में हरिषेण ने तीन महत्त्वपूर्ण बातें कहीं हैंक-वस्त्रधारण करना मोक्ष-प्राप्ति में बाधक है। ख-मोक्ष की प्राप्ति निर्ग्रन्थ (नग्न) वेश से ही सम्भव है। ग- जिनकल्प और स्थविरकल्प, मोक्षमार्ग के ये दो भेद अथवा मुनियों के दो लिंग भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट नहीं हैं, अपितु द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के समय ग्रहण किये गये अर्धफालक को छोड़ने में जो असमर्थ थे, उन शिथिलाचारी, देहसुखाकांक्षी, परीषहभीरु साधुओं ने अपने मन से कल्पित किये थे। भगवान् महावीर ने तो मुनियों के लिए एक मात्र निर्ग्रन्थ (नग्न) लिंग का ही उपदेश दिया था। . ये तीन मान्यताएँ हरिषेण की सवस्त्रमुक्ति-विरोधी विचारधारा को एकदम स्पष्ट कर देती हैं। सवस्त्रमुक्तिनिषेध से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वे स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति के भी विरोधी हैं। ७. 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने यापनीयग्रन्थ के लक्षणों पर प्रकाश डालते हुए बतलाया है कि जिस ग्रन्थ में क्षुल्लक को गृहस्थ न मानकर अपवादलिंगधारी मुनि कहा गया हो, उसे यापनीयग्रन्थ मानना चाहिए। (पृ.८२)। इस लक्षण के अनुसार भी बृहत्कथाकोश यापनीयमतविरोधी सिद्ध होता है, क्योंकि उसमें क्षुल्लक को श्रावक कहा गया है। एक रुद्रदत्त नामक ब्राह्मण युवक जिनदास श्रेष्ठी की रूपवती कन्या के साथ विवाह करने के लिए क्षुल्लक का कपटवेश धारण कर लेता है और चैत्यगृह में जाकर ठहर जाता है। वहाँ जिनदास उसे देखता है और पूछता है कि हे स्वामी! आपने यह ब्रह्मचर्यव्रत क्या जीवनपर्यन्त के लिए लिया है? क्षुल्लक कहता है-"जीवनपर्यन्त के लिए नहीं लिया।" तब जिनदास कहता है कि "यदि आपने जीवनपर्यन्त के लिये ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण नहीं किया है, तो मैं अपनी रूपवती कन्या आप सम्यग्दृष्टि श्रावक को देना चाहता हूँ। यदि आप चाहें तो उसका पाणिग्रहण करें।" यह वार्तालाप बृहत्कथाकोशगत खण्डश्री-कथानक (क्र.६५) के निम्नलिखित श्लोकों में निबद्ध है किं त्वया क्षुल्लक स्वामिन्! ब्रह्मचर्यमिदं धृतम्। सर्वकालं न वा ब्रूहि साम्प्रतं मम निश्चितम्॥ ३७॥ जिनदासवचः श्रुत्वा क्षुल्लको निजगाद तम्। ब्रह्मचर्यमिदं श्रेष्ठिन् सर्वकालं न मे धृतम्॥ ३८॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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