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________________ ३२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ सूत्र-भाष्य-एककर्तृत्वविरोधी अन्य हेतु . ३.१. कर्मणो योग्यान् __ "सकषायत्वाजीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः" (त.सू./८/२) इस सूत्र में कर्मयोग्यान् इस अल्पाक्षरात्मक समस्त पद का प्रयोग न कर कर्मणो योग्यान् इस बह्वक्षरात्मक असमस्त पद का प्रयोग क्यों किया गया ? इसका समाधान सर्वार्थसिद्धिकार ने किया है। वह यह कि कर्मणः पद का प्रयोग करने से वह पञ्चमी और षष्ठी दोनों विभक्तिवाले पद के रूप में अलग-अलग दो वाक्यों में अन्वित हो सकता है। जैसे 'कर्मणः सकषायत्वाजीवः' अर्थात् कर्मोदय के निमित्त से सकषाय होकर जीव 'कर्मणो योग्यान् पुद्गलान् आदत्ते' = कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। (स.सि./८/२)। यह समाधान भाष्यकार ने नहीं किया। इससे सिद्ध होता है कि सूत्रों की रचना उन्होंने नहीं की। यदि सूत्र रचना उन्होंने की होती, तो कर्मणो योग्यान् प्रयोग का रहस्य उन्हें ज्ञात होता और उसका स्पष्टीकरण वे भाष्य में अवश्य करते। . ३.२. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की सटिप्पण प्रति पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने लिखा है-"तत्त्वार्थसूत्र पर श्वेताम्बरों का एक पुराना टिप्पण है, जिसका परिचय 'अनेकान्त' के वीरशासनाङ्क (वर्ष ३/किरण १ / पृ. १२१-१२८) में प्रकाशित हो चुका है। इस टिप्पण के कर्ता रत्नसिंह सूरि बहुत ही कट्टर साम्प्रदायिक थे और उनके सामने भाष्य ही नहीं, किन्तु सिद्धसेन की भाष्यानुसारिणी टीका भी थी, जिन दोनों का टिप्पण में उपयोग किया गया है। परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी उन्होंने भाष्य को स्वोपज्ञ नहीं बतलाया। टिप्पण के अन्त में दुर्वादापहार रूप से जो सात पद्य दिये हैं, उनमें से प्रथम पद्य और उसके टिप्पण में साम्प्रदायिक कट्टरता का कुछ प्रदर्शन करते हुए उन्होंने भाष्यकार का जिन शब्दों में स्मरण किया है, वे निम्न प्रकार हैं प्रागेवैतददक्षिणभषणगणादास्यमानमिति मत्वा। त्रातं समूलचूलं स भाष्यकारश्चिरं जीयात्॥ टिप्पण-"दक्षिणे सरलोदाराविति हेमः।" अदक्षिणा असरलाः स्ववचनस्यैव पक्षपात-मलिना इति यावत्त एव भषणाः कुर्कुरास्तेषां गणैरादास्यमानं ग्रहीष्यमानं स्वायत्तीकरिष्यमानमिति यावत्तथाभूतमिवैतत्तत्त्वार्थशास्त्रं प्रागेव पूर्वमेव मत्वा ज्ञात्वा येनेति शेषः। सहमूलचूलाभ्यामिति समूलचूलं जातं रक्षितं स कश्चिद् भाष्यकारो Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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