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________________ अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / ३२३ द्रव्य कभी भी पाँच की संख्या का उल्लंघन नहीं करते।१११ इन परस्पर-विरोधी वचनों से स्पष्ट है कि भाष्यकार काल को द्रव्य मानते भी हैं और नहीं भी। सूत्रकार और भाष्यकार के इस मतवैषम्य से सिद्ध है कि वे भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। इसके अतिरिक्त भाष्यकार ने 'काल' के लिए श्वेताम्बर-आगमों में प्रयुक्त अद्धासमय शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु सूत्र में इसका प्रयोग कहीं भी नहीं किया गया है। इससे भी सूत्रकार और भाष्यकार की भिन्नता सिद्ध होती है। २.१८. 'बादरसाम्पराये सर्वे' तत्त्वार्थसूत्रकार ने "सूक्ष्मसाम्परायवीतरागछद्मस्थयोश्चतुर्दश" (९/१०) सूत्र में दसवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानों के परीषहों का वर्णन किया है, "एकादश जिने" (९/११) सूत्र में तेरहवें गुणस्थान के परीषह निर्दिष्ट किये गये हैं और "बादरसाम्पराये सर्वे" (९/१२) सूत्र का कथन कर छठे, सातवें, आठवें और नौवें गुणस्थानों के परीषहों का ज्ञापन किया है। किन्तु भाष्यकार ने "बादरसम्पराये सर्वे" सूत्र को केवल नौवें गुणस्थान में होनेवाले परीषहों का प्रतिपादक माना है।१२ यदि ऐसा माना जाय तो छठे से लेकर आठवें गुणस्थान तक के परीषहों का वर्णन करनेवाला कोई सूत्र पृथक् से निर्दिष्ट न होने के कारण तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ में अपूर्णता के दोष का प्रसंग आता है अथवा 'सूत्रकार उक्त गुणस्थानों में कोई भी परीषह नहीं मानते' इस आगमविरुद्ध मान्यता के दोषी सिद्ध होते हैं। किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकार जैसे महान् आगमविद् में इन दोषों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इससे यही सिद्ध होता है कि भाष्यकार ने ही बादरसाम्पराय शब्द से केवल नौवाँ गुणस्थान अर्थ ग्रहण करने की त्रुटि की है। यह सूत्रकार और भाष्यकार के प्रतिपादनों में विसंगतियों एवं उनके भिन्न व्यक्ति होने का चौदहवाँ प्रमाण है। सूत्र और भाष्य में ये बहुमुखी विसंगतियाँ इस बात की गवाह हैं कि सूत्र और भाष्य की रचना एक ही व्यक्ति द्वारा नहीं की गई है, अपितु वे अलग-अलग व्यक्तियों की कृतियाँ हैं। १११. "एतानि द्रव्याणि नित्यानि भवन्ति।--- न हि कदाचित् पञ्चत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति।" वही/५/३/ पृ. २४७। . ११२. देखिए, इसी प्रकरण का शीर्षक १.४. 'सूत्र में स्त्रीमुक्तिनिषेध।' Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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