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________________ ३२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ /प्र०१ संवर के नहीं। किन्तु भाष्यकार ने "अनित्याशरणसंसारैकत्वा" इत्यादि सूत्र के भाष्य में महाव्रतों को संवर का हेतु बतलाया है।०६ इससे भी सूत्र और भाष्य में अन्तर्विरोध की पुष्टि होती है, जिससे इस मान्यता को बल मिलता है कि सूत्रकार और भाष्यकार भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं। यद्यपि दशधर्म-प्रतिपादक सूत्र में 'संयम' धर्म के अन्तर्गत महाव्रतों को संवर का हेतु स्वीकार किया गया है, तथापि महाव्रतों को गुप्ति, समिति आदि के साथ जोड़कर संवरहेतुओं में परिगणित नहीं किया गया है, जैसा कि भाष्यकार ने किया है। २.१७. 'कालश्चेत्येके' तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरमान्य पाठ में सूत्रकार ने कहा है-"कालश्चेत्येके" (५/३८), अर्थात् कुछ आचार्य काल को भी द्रव्य कहते हैं। इससे ध्वनित होता है कि सूत्रकार स्वयं काल को द्रव्य नहीं मानते। यदि उन्हें भी काल का द्रव्य होना स्वीकार होता, तो 'कालश्चेत्येके' न कहकर 'कालश्च' कहते। श्वेताम्बर-आगमों में जो जीव तथा अजीव की पर्याय को 'काल' कहा गया है, उसे भी सूत्रकार नहीं मानते,१०७ क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में उन्होंने कहीं भी उसे काल नहीं बतलाया। किन्तु भाष्यकार काल को द्रव्य मानते भी हैं और नहीं भी।"अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः" (५/१) इस सूत्र के भाष्य में कहा है कि यहाँ काय शब्द का ग्रहण प्रदेशावयवों की बहुलता दर्शाने तथा अद्धासमय (काल) की कायात्मकता का निषेध करने के लिए किया गया है।०८ इस कथन से स्पष्ट होता है कि भाष्यकार को कालद्रव्य का केवल प्रदेशबहुत्व अमान्य है, अस्तित्व अमान्य नहीं है। उन्होंने "आद्य शब्दौ द्वित्रिभेदौ" (त.सू./श्वे/१/३५) सूत्र के भाष्य में लोक को षड्द्रव्यात्मक कहा है,१०९ किन्तु अन्यत्र लोक को पञ्चास्तिकायों का समुदाय बतलाया है ११० तथा "नित्यावस्थितान्यरूपाणि च" (त.सू. /श्वे. ५/३) सूत्र की टीका में वे कहते हैं कि ख- "अत्राह-उक्तं भवता सद्वेद्यस्यास्रवेषु भूतव्रत्यनुकम्पेति।' तत्र किं व्रतं को वा व्रतीति? अत्रोच्यते।" (वही/उत्थानिका ७/१) १०६."संवरांश्च महाव्रतादिगुप्त्यादिपरिपालनाद् गुणतश्चिन्तयेत्।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ९/७/ पृ. ४०२। १०७."किमिदं भंते! कालोत्ति पवुच्चति? गोयमा! जीवा चेव अजीवा चेव" इदं हि सूत्रमस्तिकाय पञ्चकाव्यतिरिक्त-कालप्रतिपादनाय तीर्थकृतोपादेशि, जीवाजीवद्रव्यपर्यायः काल इति सूत्रार्थ:---स च वर्तनादिरूपो द्रव्यस्यैव पर्यायः।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ५/३८/ पृ. ४३२। १०८."कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुत्वार्थमद्धासमयप्रतिषेधार्थं च।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ५/१/ पृ.२४५ । १०९. "सर्वं षट्त्वं षड्द्रव्यावरोधादिति।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/१/३५ / पृ. ६५। ११०. "पञ्चास्तिकायसमुदायो लोकः।" वही/३/६/ पृ.१५९ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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