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अ० १६ / प्र० २
तत्त्वार्थसूत्र / ३७१
दो सौ वर्ष बाद प्रारंभ हुई। जो ग्रन्थ मुखाग्रपरम्परा से २०० वर्षों तक चला आ रहा हो, उसमें पाठभेद होना आश्चर्यजनक नहीं है । यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सभी मुनि तत्त्वार्थसूत्र को उसके भाष्य के साथ ही कंठस्थ तो नहीं करते थे, कुछ मात्र सूत्र को कण्ठस्थ करते रहे होंगे । अतः सूत्रगत पाठ और भाष्यगत पाठ में क्वचित् अंतर आ गया हो ।" (जै. ध. या.स./ पृ. २५८ ) ।
डॉक्टर साहब के इस कथन के अनुसार सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र और तत्वार्थभाष्य ई० सन् ४५३ के बाद लिपिबद्ध किये गये । इसके पूर्व तक दोनों श्रुतिपरम्परा या मौखिक - परम्परा से चले आ रहे थे । किन्तु तत्त्वार्थसूत्र का श्रुतिपरम्परा से चला आना तो युक्तिसंगत है, लेकिन भाष्य का श्रुतिपरम्परा से चला आना युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि भाष्य जैसे विशाल गद्य को कण्ठस्थ करना और उसे स्मृति में सुरक्षित रखना असंभव है। दूसरी बात यह है कि किसी भी गद्य या पद्य को कण्ठस्थ करने के लिए बार-बार दुहराना पड़ता है। और दुहराने के लिए यह जरूरी है कि या तो वह लिखित रूप में सामने हो या कोई उसे मुँह से बोलकर तब तक बार-बार सुनाता रहे, जब तक दुहराते - दुहराते वह कण्ठस्थ न हो जाय। और मुँह से बोलकर दूसरे को सुनाने के लिए स्वयं को पहले से कण्ठस्थ होना चाहिए। और स्वयं को कण्ठस्थ होने के लिए दूसरे के मुख से सुनना आवश्यक है। इस तरह दूसरे को बोलकर सुनानेवाला प्रथम व्यक्ति स्वयं भाष्यकार ही हो सकता है । किन्तु यह भाष्यकार के लिए भी संभव नहीं है कि वह इतने विशाल गद्य को मुँह से घण्टों बोलता रहे, उसे तब तक बार-बार दुहराता रहे, जब तक सुननेवाले को कण्ठस्थ न हो जाय। यह भी संभव नहीं है कि भाष्यकार ने जो कुछ पहले सुनाया है, उसे वह ज्यों का त्यों दूसरी बार दुहरा सके। और दूसरी बार ज्यों का त्यों न दुहराने से जो बोला गया है, सुननेवाले के मन पर उसके संस्कार दृढ़ नहीं हो सकते। इस प्रकार किसी भी विशाल अलिखित गद्य को कण्ठस्थ करना संभव नहीं है। इसीलिए कण्ठस्थ करने के उद्देश्य से सूत्रशैली और पद्यशैली का प्रचलन हुआ था। यही कारण है कि भारतीय साहित्य के सभी प्राचीन ग्रन्थ, जो श्रुतिपरम्परा से चले आये हैं, सूत्रबद्ध और पद्यबद्ध ही मिलते हैं। उन पर जो भी टीकाएँ या भाष्य लिखे गये, वे ग्रन्थलेखन - प्रथा के प्रचलित होने पर ही लिखे गये। क्योंकि विस्मृति से बचाने के लिए उनका तत्काल लिपिबद्धीकरण आवश्यक था । किन्तु श्वेताम्बरपरम्परा में धार्मिक ग्रन्थों के लेखन की प्रथा ई० सन् ४५३ तक प्रारंभ नहीं हुई थी । अतः उसके पश्चात् ही भाष्य की रचना संभव थी । इस स्थिति में यदि भाष्य का रचयिता सूत्रकार को ही माना जाय तो सूत्रकार का स्थितिकाल छठी शताब्दी ई० मानना होगा, जो उपलब्ध प्रमाणों के विरुद्ध है । उपलब्ध प्रमाण उन्हें द्वितीय शती ई० में ही विद्यमान
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