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________________ ३७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/ प्र०२ में स्पष्ट किया जा चुका है। तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल संघवी जी स्वयं ईसा की तीसरीचौथी शताब्दी मानते हैं। अतः जब तत्त्वार्थसूत्र की ही रचना साम्प्रदायिक मतभेद के दृढमूल हो जाने के बाद हुई थी, तब उस पर किसी टीका या भाष्य की रचना उसके बाद ही हो सकती है। तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य में दिगम्बर और श्वेताम्बर मान्यताओं का मतभेद स्पष्ट दिखाई देता है। इसका सप्रमाण निरूपण इसी अध्याय के आरंभ में किया जा चुका है। दूसरी बात यह है कि ई० सन् ४७५-४९० के कदम्बवंशीय राजा श्रीविजयशिवमृगेश वर्मा एवं मृगेशवर्मा के अभिलेखों में श्वेतपटमहाश्रमणसंघ, निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघ, यापनीयों तथा कूर्चकों को दान दिये जाने का उल्लेख है।५० इनके सैद्धान्तिक मतभेद का पता इनके नामों से ही चल जाता है। यदि अन्य प्रमाणों को छोड़कर इस शिलालेख के ही आधार पर विचार करें, तो इन चारों सम्प्रदायों का अस्तित्व शिलालेख लिखे जाने के कम से कम पचास वर्ष पूर्व से तो मानना ही होगा जिसका तात्पर्य यह है कि ४२५ ई० में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति को अमान्य करने वाला दिगम्बरजैन-सम्प्रदाय तथा इसके विरुद्ध मान्यताएँ रखनेवाले श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय मौजूद थे। सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद स्वामी का समय ४५० ई० के लगभग माना गया है, क्योंकि उनके शिष्य वज्रनन्दी ने वि० स० ५२६ (ई० सन् ४६९) में द्रविडसंघ की स्थापना की थी।५१ अतः उनका स्थितिकाल इससे पूर्व ही हो सकता है। दूसरी ओर तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की रचना तभी संभव है जब तत्त्वार्थसूत्र लिपिबद्ध हो चुका हो। यहाँ मैं डॉ० सागरमल जी के शब्द उद्धृत करना चाहूँगा। वे लिखते हैं-"तत्त्वार्थभाष्य के काल तक जैनपरम्परा में पुस्तक लेखन की प्रवृत्ति विकसित नहीं हुई थी। मुनि के लिए ग्रन्थलेखन और लिखित ग्रन्थों का संग्रह करना प्रायश्चित-योग्य अपराध माने जाते थे, क्योंकि ताड़पत्र पर ग्रन्थ लिखने और उनका संग्रह करने दोनों में जीवहिंसा अपरिहार्य थी, जब कि सर्वार्थसिद्धि जिस काल में लिखी गई, उस काल में लेखनपरम्परा प्रारंभ हो चुकी थी। श्वेताम्बरपरम्परा में सर्वप्रथम वी० नि० सं० ९८० अर्थात् विक्रम सं० ५१० या ई० सन् ४५३ में यह सुनिश्चित किया गया है कि यदि आगमसाहित्य की रक्षा करना हो, तो उन्हें ताड़पत्रों पर लिखवाना और संगृहीत करना होगा। इस प्रकार श्वेताम्बरपरम्परा में ग्रन्थलेखन की प्रवृत्ति तत्त्वार्थभाष्य की रचना के लगभग १५०. देखिए, अभिलेखों का सम्बन्धित मूलपाठ, अध्याय २/प्रकरण ६/शीर्षक २। १५१. डॉ० दरबारीलाल कोठिया : 'समन्तभद्र और दिग्नाग में पूर्ववर्ती कौन?'/'अनेकान्त' (मासिक), जनवरी १९४३। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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