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________________ ३७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०२ सिद्ध करते हैं। अतः अन्यथानुपपत्ति से यही सिद्ध होता है कि पाँचवीं शती ई० में वलभीवाचना के समय तत्त्वार्थसूत्र के लिपिबद्ध हो जाने के पश्चात् ही सूत्रकार से भिन्न उमास्वाति नाम के आचार्य ने उस पर भाष्य लिखा। दूसरी बात यह है कि मूलग्रन्थ के लिपिबद्धरूप में उपलब्ध होने पर ही कोई विद्वान् उस पर भाष्यादि रच सकता है। स्वयं मूलग्रन्थकार के लिए मूलग्रन्थ को लिपिबद्ध किये बिना उस पर भाष्य, टीका या वृत्ति रचना संभव नहीं है। और भाष्य, टीका, वृत्ति आदि तो लिपिबद्ध करते हुए ही रचे जा सकते हैं, क्योंकि लिपिबद्ध न करने पर पहले किस सूत्र का भाष्य किया जा चुका है, उसके भाष्य में क्या कहा गया है, किसी शब्द की क्या निरुक्ति या व्याख्या की गयी है, कौन से दृष्टान्त दिये गये हैं, कौन सी शंकाएँ उठाकर उनका समाधान किया गया है, किस मत का खण्डन और किस की पुष्टि की गयी है, किन पूर्वाचार्यों के किन वचनों को प्रमाणरूप में उद्धृत किया गया है, इन बातों का विस्मृत होना अनिवार्य है। द्वादशांगश्रुत का अधिकांश ज्ञान पंचमकाल में स्मृतिक्षमता के क्रमिक ह्रास से ही लुप्त हुआ है। जैसे कोई दृष्टिहीन स्त्री गेंहूँ पीस रही हो और आटे को गाय खाती जा रही हो, तो उसकी रसोई कभी नहीं बन सकती, वैसे ही कोई पंचमकालीन भाष्यकार सूत्रों के भाष्य का मन में चिन्तन करता जा रहा हो और पूर्वचिन्तित भाष्य को भूलता जा रहा हो, तो उसके भाष्य की रचना कभी नहीं हो सकती। भाष्यरचना में न केवल सूत्रादि के सम्यक् अर्थ का चिन्तन, उसकी पुष्टि के लिए दृष्टान्त, प्रमाण आदि का अन्वेषण और यथास्थान संयोजन आवश्यक होता है, अपितु उपयुक्त शब्द, वाक्य, अलंकार और व्याकरण का प्रयोग भी आवश्यक होता है तथा किसी बात की पुनरुक्ति अथवा किसी तथ्य की च्युति न हो, इसका भी ध्यान रखना पड़ता है। फिर जरूरत होती है, उन्हें ज्यों का त्यों सुरक्षित रखने की। इसके लिए उन्हें लिपिबद्ध करना ही एकमात्र उपाय होता है। अतः किसी भी भाष्य, टीका या वृत्ति की रचना उसे लिपिबद्ध किये बिना संभव नहीं है। इससे सिद्ध है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की रचना तत्त्वार्थसूत्र के लिपिबद्ध होने के पश्चात् लिपिबद्धरूप में ही ईसा की छठी शती के पूर्वार्ध में हुई थी। और दिगम्बर-श्वेताम्बर-सम्प्रदायभेद इसके बहुत पहले हो चुका था, जो राजा श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा के शिलालेख से भी प्रमाणित है, इसलिए भाष्य भी सम्प्रदायभेद के बाद ही रचा गया है। अतः सर्वार्थसिद्धि में श्वेताम्बरमत-विरोधी तथ्यों का उल्लेख होने पर भी वह भाष्य से पूर्ववर्ती ही सिद्ध होती है। फलस्वरूप सर्वार्थसिद्धि को भाष्योत्तरवर्ती सिद्ध करने के लिए संघवी जी द्वारा प्रस्तुत किया गया यह हेतु भी सर्वथा असत्य है कि सर्वार्थसिद्धि की रचना सम्प्रदायभेद के बाद हुई है और तत्त्वार्थधिगमभाष्य का प्रणयन उसके पहले। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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