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४१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६ / प्र०४ गुणस्थानों के नाम वर्णित किये गये हैं। उदाहरणार्थ, उसमें मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि (सास्वादन सम्यग्दृष्टि) एवं सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानों का वर्णन है, इनमें गुणश्रेणिनिर्जरा होती ही नहीं है। तथा प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत (विरत) से अधिक गुणश्रेणिनिर्जरा अनन्तवियोजक के और अनन्तवियोजक से अधिक दर्शनमोहक्षपक के होती है, किन्तु इनका सूत्र में नाम ही नहीं है। अपरञ्च दर्शनमोहक्षपक से अधिक गुणश्रेणिनिर्जरा चारित्रमोह-उपशमक के, उससे अधिक उपशान्तमोह के, उससे भी अधिक क्षपक के, उससे भी अधिक क्षीणमोह के और उससे भी अधिक 'जिन' (सयोगिकेवली और अयोगिकेवली) के होती है, किन्तु इनके नाम इस क्रम से उपर्युक्त सूत्र में वर्णित नहीं हैं। इससे सिद्ध है कि वह गुणश्रेणिनिर्जरा के स्थानों का प्रतिपादक सूत्र नहीं है, अपितु केवल गुणस्थानों के नाम का वर्णन करनेवाला सूत्र है। उसमें ऐसा निर्देश भी किया गया है, यथा-"कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउदस जीवट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा–मिच्छादिट्ठी---।" अर्थात् कर्मों की विशुद्धि के मार्ग की अपेक्षा चौदह जीवस्थान (गुणस्थान) बतलाये गये हैं, जैसे-मिथ्यादृष्टि---। और डॉ० सागरमल जी ने तो इसे प्रक्षिप्त माना है। वे लिखते हैं-"---श्वेताम्बरमान्य समवायांग में १४ जीवठाण के रूप में १४ गुणस्थानों का निर्देश है, किन्तु अनेक आधारों पर यह सिद्ध होता है कि समवायांग में प्रथम शती से पाँचवी शती के बीच अनेक प्रक्षेप होते रहे हैं। अतः वलभीवाचना के समय ही जीवसमास का यह विषय उसमें संकलित किया होगा। अन्य प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर-आगमों, जैसे-आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, भगवती और यहाँ तक कि प्रथम शताब्दी में रचित प्रज्ञापना और जीवाभिगम में भी गुणस्थान का अभाव है।" (जै.ध.या.स./पृ.२५१)।
इस कथन से यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि तत्त्वार्थ का उपर्युक्त सूत्र षट्खण्डागम के उक्त सूत्र पर ही आधारित है। श्वेताम्बरग्रन्थ आचारांगनियुक्ति में गुणश्रेणिनिर्जरा-स्थान-प्रतिपादक दो गाथाएँ उपलब्ध होती हैं, किन्तु उसका रचनाकाल ईसा की छठी शताब्दी है, अतः वह भी तत्त्वार्थ के उपर्युक्त सूत्र का आधार नहीं हो सकती। समवायांग की तरह आचारांगनियुक्ति में भी उक्त गाथाएँ षट्खण्डागम से ही पहुँची हैं। (देखिए , अध्याय १०/ प्रकरण ५/शीर्षक ३.१.,३.२.,३.३.)।
उपर्युक्त उदाहरण इस बात के गवाह हैं कि तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रों की शाब्दिक, आर्थिक और रचनात्मक दृष्टि से जितनी निकटता दिगम्बरग्रन्थों के साथ है, उतनी श्वेताम्बरग्रन्थों के साथ नहीं है। अतः दिगम्बरग्रन्थ षट्खण्डागम और कुन्दकुन्द के ग्रन्थ ही तत्त्वार्थसूत्र की रचना के प्रमुख आधार हैं। इनके अलावा भगवती-आराधना और मूलाचार जैसे प्राचीन दिगम्बरग्रन्थों से भी विषयवस्तु ग्रहण की गई है।
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