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________________ ४०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०४ कि श्वेताम्बर-आगम ज्ञातृधर्मकथाङ्ग (अध्याय ८) में बीस हेतुओं का वर्णन है। तत्त्वार्थसूत्र और षट्खण्डागम में वर्णित इन हेतुओं में नामसाम्य और क्रमसाम्य भी ज्ञातृधर्मकथांग में वर्णित हेतुओं से अधिक हैं। २३ तत्त्वार्थसूत्र – हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्। ७/१ । चारित्तपाहुड - हिंसाविरइ अहिंसा असच्चविरई अदत्तविरई य। तुरियं अबभविरई पंचम संगम्मि विरई य॥ २९॥ स्थानांग - पंच महव्वया पण्णत्ता,तं जहा-सव्वाओ पाणातिवाया ओवेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, जाव सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं॥ ५/१/३८९। यहाँ पाँचों पापों का क्रमशः उल्लेख और उनके साथ विरति शब्द का प्रयोग तत्त्वार्थ के सूत्र और चारित्तपाहुड की गाथा में ही हुआ है, स्थानांग के सूत्र में नहीं। २४ तत्त्वार्थसूत्र – वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च। ७/४। चारित्तपाहुड - वयगुत्ती मणगुत्ती इरियासमिदी सुदाणणिक्खेवो। अवलोयभोयणाएऽहिंसाए भावणा होंति॥ ३१॥ समवायांग - इरियासमिई मणगुत्ती वयगुत्ती आलोयभायणभोयणं आदाण भंडमत्तनिक्खेवणासमिई। २५ । यहाँ तत्त्वार्थ के सूत्र का चारित्तपाहुड की गाथा के साथ समवायांग के सूत्र की अपेक्षा शब्दसाम्य और क्रमसाम्य अधिक है। इतना ही नहीं, समवायांग के सूत्र में जो श्वेताम्बरमत-परक भाजन और भाण्ड का उल्लेख है, वह तत्त्वार्थ के सूत्र में नहीं है। २५ तत्त्वार्थसूत्र – शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्षशुद्धिसधर्माविसं वादाः पञ्च। ७/६। चारित्तपाहुड – सुण्णायारणिवासो विमोचितावास जं परोधं च। एसणसुद्धिसउत्तं साहम्मी संविसंवादो॥ ३३॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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