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________________ २८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ परिस्थिति में निर्ग्रन्थी को ऐसे उपाश्रय में ठहरने की अनुज्ञा है।" ६० जहाँ भिक्खु और भिक्खुणियों के लिए नियम एक जैसे हैं, वहाँ दोनों को सम्बोधित करके निर्देश किया गया है।६१ किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में ऐसा नहीं है। उसमें अनगारधर्म के अन्तर्गत केवल पुरुषोचित व्रतनियमों का ही विधान किया गया है, स्त्रीजनोचित व्रत-नियमों का भूल से भी नाम नहीं लिया गया है। उदाहरणार्थ, नाग्न्यपरीषह पुरुष पर ही चरितार्थ होता है, स्त्री पर नहीं। स्त्री पर घटित होनेवाला इसके समकक्ष कोई परीषह वर्णित नहीं किया गया है। स्त्रीपरीषह भी ऐसा ही है। इसके साथ स्त्री पर घटित होने वाले पुरुषपरीषह का उल्लेख नहीं किया गया। शीत, उष्ण, दंशमशक परीषह भी सवस्त्र स्त्री के अनुरूप नहीं हैं। जहाँ आचारांगानुसार भिक्खुणियों के लिए सान्तरोत्तर प्रावरणीय की व्यवस्था हो, चार संघाटिकाओं को रखने की अनुमति हो, तीन-तीन सूती-ऊनी कल्पों के प्रयोग की सुविधा दी गई हो, वहाँ स्त्रियों पर शीत, उष्ण, दंशमशक परीषह स्वप्न में भी घटित नहीं हो सकते। ब्रह्मचर्यमहाव्रत की भावनाओं में पुरुषों के अनुरूप स्त्रीरागकथाश्रवण और तन्मनोहराङ्ग-निरीक्षण के त्याग का ही वर्णन है, स्त्रियों के अनुरूप पुरुषरागकथाश्रवण तथा पुरुषमनोहरांग-निरीक्षण के त्याग का कथन नहीं है। अचौर्यमहाव्रत की शून्यागारवास और विमोचितवास भावनाएँ भी स्त्री के विरुद्ध हैं। दिगम्बर-आगम मूलाचार और श्वेताम्बर-आगम आचारांग में आर्यिकाओं के लिए उपाश्रय में ही रहने का विधान किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित वैयावृत्यतप के दशभेद आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ की सेवा स्त्रीमहाव्रतियों के अनुकूल नहीं हैं। पुलाक, वकुश आदि पाँच भेद मुनियों में ही बतलाए गये हैं, श्रमणियों में नहीं। इससे सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार एकमात्र नग्न पुरुषशरीर को ही मोक्षसाधक लिंग मानते हैं, इसीलिए उन्होंने नग्नपुरुष-विषयक परीषहों का ही उल्लेख किया है, अचौर्य एवं ब्रह्मचर्य महाव्रतों की भावनाएँ भी साधु के ही अनुरूप बतलायी हैं, साधुओं के ही पुलाक आदि पाँच भेदों का वर्णन किया है और साधुओं की सेवा को ही वैयावृत्यतप कहा है। तत्त्वार्थसूत्र में भिक्षुणी, निर्ग्रन्थी, श्रमणी और आर्यिका, इनमें से किसी भी शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, जब कि भाष्य में श्रमणी (१०/७/पृ. ४४६), निर्ग्रन्थी - ६०. "नो कप्पइ निग्गंथाणं गाहावइकुलस्स मज्झं मझेणं गंतुं वत्थए। कप्पइ निग्गंथीणं गाहावइकुलस्स मज्झं मज्झेणं गंतुं वत्थुए ॥" बृहत्कल्पसूत्र / १/३३-३४ । ६१. "से भिक्खू वा भिक्खुणी वा---।" आचारांग/२/१/१/१ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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