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अ०१६/प्र०१
तत्त्वार्थसूत्र / २८३ इस विषय में मेरा निवेदन है कि यद्यपि तत्त्वार्थसूत्रकार ने श्रावकधर्म का निरूपण करते समय पुरुषोचित व्रतों का ही विधान किया है, किन्तु चूँकि जैनों के तीनों सम्प्रदायों (दिगम्बर, श्वेताम्बर और यापनीय) को पुरुष के समान स्त्री का भी श्राविका होना स्वीकार्य है, इसलिए श्रावकधर्म के पुरुषोचित व्रतों के तुल्य स्त्रीजनोचित व्रतों का युक्तिबल से अनुमान कर लिया जाता है। किन्तु स्त्रियों का मुक्त होना जैनों के सभी सम्प्रदायों को मान्य नहीं है, केवल श्वेताम्बरों और यापनीयों को मान्य है, दिगम्बरों को नहीं, इसलिए तत्त्वार्थसूत्र में मुनिधर्म के अन्तर्गत जिन पुरुषोचित व्रतनियमों का विधान किया गया है, उनसे तत्समकक्ष स्त्रीजनोचित व्रतनियमों का युक्तिबल से स्वतः अनुमान लगाना युक्तिसंगत एवं न्यायोचित नहीं है। वहाँ स्त्रीमुक्ति का प्रतिपादन किया गया है, यह तभी सिद्ध हो सकता है जब मुनिव्रतों के समकक्ष स्त्रीव्रतों का भी शब्दतः या युक्तितः प्रतिपादन उपलब्ध हो।
यद्यपि मूलाचार स्त्रीमुक्ति-प्रतिपादक नहीं है, तो भी उसमें मुनियों और आर्यिकाओं के लिए विशिष्ट नियमों का अलग-अलग उल्लेख किया गया है। उदाहरणार्थ, मुनियों के लिए जिस समाचार या सामाचार का निर्देश किया गया है, आर्यिकाओं को उसे ज्यों का त्यों ग्रहण न कर अपनी स्त्रीपर्याय के योग्य ग्रहण करने का उपदेश दिया गया है। (गा. १८७)। मुनि को यथाजातरूपधारी कहा गया है और आर्यिकाओं को अविकारवत्थवेसा (विकाररहितवस्त्र और वेशधारी-गा. १९०)। आहारादि के लिए आर्यिकाओं को तीन, पाँच या सात के समूह में जाने का आदेश किया गया है, (गा. १९४ / पृ. १५८) जब कि मुनि अकेला भी जा सकता है। जहाँ मुनियों को गिरिकन्दरा, श्मशान, शून्यागार और वृक्षमूल में ठहरने का विधान मिलता है, वहाँ आर्यिकाओं को उपाश्रय में ही रहने का आदेश है। (गा.९५२, ९५४/ पृ. १३८-१३९)।
स्त्रीमुक्ति-प्रतिपादक श्वेताम्बरीय-आगम आचारांगादि में भी भिक्खु एवं भिक्खुणियों अथवा निर्ग्रन्थों एवं निर्ग्रन्थियों के लिए विशिष्ट नियम अलग-अलग निर्दिष्ट किये गये हैं। जैसे आचारांग में कहा गया है कि जो निर्ग्रन्थ (साधु) तरुण हो, युवक हो, बलवान् हो, नीरोग हो, दृढ़संहननवाला हो, उसे एक ही वस्त्र धारण करना चाहिए, दूसरा नहीं। किन्तु निर्ग्रन्थियों को चार संघाटिकाएँ रखनी चाहिए : एक दो हाथ विस्तारवाली, दो तीन हाथ प्रमाण और एक चार हाथ प्रमाण। ५९ बृहत्कल्पसूत्र में निर्देश किया गया है कि "सामान्यरूप से जिस उपाश्रय का मार्ग गृहस्थ के घर में से होकर जाता हो, वहाँ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी का ठहरना उचित नहीं है, परन्तु विशेष ५९. "जे णिग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे से एगं वत्थं धारेज्जा, णो बिइयं ।
जा णिग्गंथी सा चत्तारि संघाडीओ धारेज्जा एगं दुहत्थ-वित्थारं, दो तिहत्थवित्थाराओ, एगं चउहत्थवित्थारं।" आचारांग २/५/१/१४१ ।
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