SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 554
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०१ के उत्तरवर्ती हैं, जबकि होना चाहिये कोई पूर्ववर्ती। यह दूसरी बात है कि उन्होंने क्रमवाद का जोरों के साथ समर्थन और व्यवस्थित रूप से स्थापन किया है, संभवतः इसी से उनको उस वाद का पुरस्कर्ता समझ लिया गया जान पड़ता है। अन्यथा, क्षमाश्रमण जी स्वयं अपने निम्न वाक्यों द्वारा यह सूचित कर रहे हैं कि उनसे पहले युगपद्वाद, क्रमवाद तथा अभेदवाद के पुरस्कर्ता हो चुके हैं केई भणंति जुगवं जाणइ पासइ य केवली णियमा। अण्णे एगंतरियं इच्छंति सुओवएसेणं॥ १८४॥ अण्णे ण चेव वीसुं दंसणमिच्छंति जिणवरिंदस्स। जं चि य केवलणाणं तं चि य से दरिसणं विति॥ १८५॥ विशेषणवती। "पं० सुखलाल जी आदि ने भी कथन-विरोध को महसूस करते हुए प्रस्तावना में यह स्वीकार किया है कि जिनभद्र और सिद्धसेन से पहले क्रमवाद के पुरस्कर्तारूप में कोई विद्वान् होने ही चाहिये, जिनके पक्ष का 'सन्मति' में खण्डन किया गया है, परन्तु उनका कोई नाम उपस्थित नहीं किया। जहाँ तक मुझे मालूम है, वे विद्वान् नियुक्तिकार भद्रबाहु होने चाहिये, जिन्होंने आवश्यकनियुक्ति के निम्न वाक्यद्वारा क्रमवाद की प्रतिष्ठा की है णाणंमि दंसणंमि अ इत्तो एगयरयंमि उवजुत्ता। सव्वस्स केवलिस्सा (स्स वि) जुगवं दो णत्थि उवओगा॥९७८॥ "ये नियुक्तिकार भद्रबाहु श्रुतकेवली न होकर द्वितीय भद्रबाहु हैं, जो अष्टाङ्गनिमित्त तथा मन्त्रविद्या के पारगामी होने के कारण नैमित्तिक८ कहे जाते हैं, जिनकी कृतियों में भद्रबाहुसंहिता और उपसग्गहरस्तोत्र के भी नाम लिये जाते हैं और जो ज्योतिर्विद् वराहमिहिर के सगे भाई माने जाते हैं। इन्होंने दशाश्रुतस्कन्ध-नियुक्ति में स्वयं अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु को प्राचीन विशेषण के साथ नमस्कार किया है,२९ उत्तराध्ययननियुक्ति में मरणविभक्ति के सभी द्वारों का क्रमशः वर्णन करने के अनन्तर लिखा है कि २८. पावयणी १ धम्मकहा २ वाई ३ णेमित्तिओ ४ तवस्सी ५ य। विजा ६ सिद्धो ७ य कई ८ अट्ठेव पभावगा भणिया॥ १॥ अजरक्ख १ नंदिसेणो २ सिरिगुत्तविणेय ३ भद्दबाहू ४ य। खवग ५ ऽजखवुड ६ समिया ७ दिवायरो ८ वा इहाऽऽहरणा॥ २॥ 'छेदसूत्रकार अने नियुक्तिकार' लेख में उद्धृत। २९. वंदामि भद्दबाहुं पाईणं चरिमसगलसुयणाणिं। सुत्तस्स कारगमिसिं दसासु कप्पे य ववहारे॥ १॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy