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________________ अ०१८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४९९ “पदार्थों को सम्पूर्ण तथा विशदरीति से जिन ( केवलज्ञानी) और चतुर्दशपूर्वी ३० ( श्रुतकेवली) ही कहते हैं, कह सकते हैं" और आवश्यक आदि ग्रन्थों पर लिखी गई अनेक नियुक्तियों में आर्यवज्र, आर्यरक्षित, पादलिप्ताचार्य, कालिकाचार्य और शिवभूति आदि कितने ही ऐसे आचार्यों के नामों, प्रसङ्गों, मन्तव्यों अथवा तत्सम्बन्धी अन्य घटनाओं का उल्लेख किया गया है, जो भद्रबाहु श्रुतकेवली के बहुत कुछ बाद हुए हैं, किसी-किसी घटना का समय तक भी साथ में दिया है; जैसे निह्नवों की क्रमशः उत्पत्ति का समय वीरनिर्वाण से ६०९ वर्ष बाद तक का बतलाया है। ये सब बातें और इसी प्रकार की दूसरी बातें भी नियुक्तिकार भद्रबाहु को श्रुतकेवली बतलाने के विरुद्ध पड़ती हैं, भद्रबाहु श्रुतकेवली द्वारा उनका उस प्रकार से उल्लेख तथा निरूपण किसी तरह भी नहीं बनता । इस विषय का सप्रमाण विशद एवं विस्तृत विवेचन मुनि पुण्यविजय जी ने आज से कोई सात वर्ष पहले अपने 'छेदसूत्रकार और निर्युक्तिकार' नाम के उस गुजराती लेख में किया है, जो 'महावीर जैनविद्यालय - रजत महोत्सव- ग्रन्थ' में मुद्रित है।३१ साथ ही यह भी बतलाया है कि तित्थोगालिप्रकीर्णक, आवश्यकचूर्णि, आवश्यकहारिभद्रीया टीका, परिशिष्टपर्व आदि प्राचीन मान्य ग्रन्थों में जहाँ चतुर्दशपूर्वर भद्रबाहु ( श्रुतकेवली ) का चरित्र वर्णन किया गया है, वहाँ द्वादशवर्षीय दुष्काल --- छेदसूत्रों की रचना आदि का वर्णन तो है, परन्तु वराहमिहिर का भाई होना, निर्युक्तिग्रन्थों, उपसर्गहरस्तोत्र, भद्रबाहुसंहितादि ग्रन्थों की रचना से तथा नैमित्तिक होने से सम्बन्ध रखनेवाला कोई उल्लेख नहीं है। इससे छेदसूत्रकार भद्रबाहु और नियुक्ति आदि के प्रणेता भद्रबाहु एक दूसरे से भिन्न व्यक्तियाँ हैं ।" (पु. जै. वा. सू./ प्रस्ता. / ./पृ.१४५-१४६)। ७ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन का समय छठी और ७वीं शती ई० का मध्य "इन नियुक्तिकार भद्रबाहु का समय विक्रम की छठी शताब्दी का प्रायः मध्यकाल है, क्योंकि इनके समकालीन सहोदर भ्राता वराहमिहिर का यही समय सुनिश्चित है, ३०. सव्वे एए दारा मरणविभत्तीइं वण्णिया सगलणिउणे पयत्थे जिणचउदसपुव्विं कमसो। भासते ॥ २३३ ॥ ३१. “ इससे भी कई वर्ष पहले आपके गुरु मुनि श्री चतुरविजय जी ने श्रीविजयानन्दसूरीश्वरजन्मशताब्दि - स्मारकग्रन्थ में मुद्रित अपने 'श्रीभद्रबाहुस्वामी' नामक लेख में इस विषय को प्रदर्शित किया था और यह सिद्ध किया था कि नियुक्तिकार भद्रबाहु श्रुतकेवली से भिन्न द्वितीय भद्रबाहु हैं और वराहमिहर के सहोदर होने से उनके समकालीन हैं। उनके इस लेख का अनुवाद अनेकान्त वर्ष ३ / किरण १२ में प्रकाशित हो चुका है।" (पु. जै.वा.सू./ प्रस्ता/ पृ. १४६ ) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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