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________________ अ०१८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४९७ राजवार्त्तिक-भाष्य में४ और उधर श्वेताम्बरसम्प्रदाय में सर्वप्रथम जिनभद्रक्षमाश्रमण के विशेषावश्यक-भाष्य तथा विशेषणवती नाम के ग्रन्थों में २५ मिलता है। साथ ही तृतीय काण्ड की ‘णत्थि पुढवीविसिट्ठो' और 'दोहिं वि णएहिं णीयं' नाम की दो गाथाएँ (५२,४९) विशेषावश्यकभाष्य में क्रमशः गा. नं.२१०४, २१९५ पर उद्धृत पाई जाती हैं।२६ इसके सिवाय, विशेषावश्यकभाष्य की स्वोपज्ञटीका में२७ 'णामाइतियं दव्वट्ठियस्स' इत्यादि गाथा ७५ की व्याख्या करते हुए ग्रन्थकार ने स्वयं "द्रव्यास्तिकनयावलम्बिनौ संग्रह-व्यवहारौ ऋजुसूत्रादयस्तु पर्यायनयमतानुसारिणः आचार्यसिद्धसेनाऽभिप्रायात्" इस वाक्य के द्वारा सिद्धसेनाचार्य का नामोल्लेखपूर्वक उनके सन्मतिसूत्र-गत मत का उल्लेख किया है, ऐसा मुनि पुण्यविजय जी के मगसिर सुदि १०मी, सं० २००५ के एक पत्र से मालूम हुआ है। दोनों ग्रन्थकार विक्रम की ७ वीं शताब्दी के प्रायः उत्तरार्ध के विद्वान् हैं। अकलंकदेव का विक्रम सं० ७०० में बौद्धों के साथ महान् वाद हुआ है, जिसका उल्लेख पिछले एक फुटनोट में अकलंकचरित के आधार पर किया जा चुका है, और जिनभद्रक्षमाश्रमण ने अपना विशेषावश्यकभाष्य शक सं० ५३१ अर्थात् वि० सं० ६६६ में बनाकर समाप्त किया है। ग्रन्थ का यह रचनाकाल उन्होंने स्वयं ही ग्रन्थ के अंत में दिया है, जिसका पता श्री जिनविजय जी को जैसलमेर भण्डार की एक अतिप्राचीन प्रति को देखते हुए चला है। ऐसी हालत में सन्मतिकार सिद्धसेन का समय विक्रम सं० ६६६ से पूर्व का सुनिश्चित है, परन्तु वह पूर्व का समय कौन-सा है? कहाँ तक उसकी कम से कम सीमा है? यही आगे विचारणीय है।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./ पृ. १४४-१४५)। ... "२. सन्मतिसूत्र में उपयोगद्वय के क्रमवाद का जोरों के साथ खण्डन किया गया है, यह बात भी पहले बतलाई जा चुकी तथा मूलग्रन्थ के कुछ वाक्यों को उद्धृत करके दर्शाई जा चुकी है। उस क्रमवाद का पुरस्कर्ता कौन है और उसका समय क्या है? यह बात यहाँ खास तौर से जान लेने की है। हरिभद्रसूरि ने नन्दिवृत्ति में तथा अभयदेवसूरि ने 'सन्मति' की टीका में यद्यपि जिनभद्रक्षमाश्रमण को क्रमवाद के पुरस्कर्तारूप में उल्लेखित किया है, परन्तु वह ठीक नहीं है, क्योंकि वे तो सन्मतिकार २४. तत्त्वार्थराजवार्तिक ६/१०/ वार्तिक १४-१६ । २५. विशेषावश्यकभाष्य /गा. ३०८९ से (कोट्याचार्य की वृत्ति में गा. ३७२९ से) तथा विशेषणवती गा. १८४ से २८०/ सन्मति-प्रस्तावना / पृ.७५ । २६. उद्धरण-विषयक विशेष ऊहापोह के लिये देखिए , 'सन्मति'- प्रस्तावना/पृ. ६८, ६९। ७. इस टीका के अस्तित्व का पता हाल में मुनि पुण्यविजय जी को चला है। देखिये, श्री आत्मानन्दप्रकाश पुस्तक ४५ / अंक ८ / पृ. १४२ पर उनका तद्विषयक लेख। (पु. जै. वा.सू./ प्रस्ता ./ पृ. १४४)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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