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________________ अ०१८/प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५१५ में होना पाया जाता है, वे कुछ द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता हैं, न कि सन्मतिसूत्र के, जिसका रचनाकाल नियुक्तिकार भद्रबाहु के समय से पूर्व का सिद्ध नहीं होता और इन भद्रबाहु का समय प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् मुनि श्री चतुरविजय जी और मुनि श्री पुण्यविजय जी ने अनेक प्रमाणों के आधार पर विक्रम की छठी शताब्दी के प्रायः तृतीय चरण तक का निश्चित किया है। पं० सुखलाल जी का उसे विक्रम की दूसरी शताब्दी बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता। अतः सन्मतिकार सिद्धसेन का जो समय विक्रम की छठी शताब्दी के तृतीय चरण और सातवीं शताब्दी के तृतीय चरण का मध्यवर्ती काल निर्धारित किया गया है, वही समुचित प्रतीत होता है, जब तक कि कोई प्रबल प्रमाण उसके विरोध में सामने न लाया जावे। जिन दूसरे विद्वानों ने इस समय से पूर्व की अथवा उत्तरसमय की कल्पना की है, वह सब उक्त तीन सिद्धसेनों को एक मानकर उनमें से किसी एक के ग्रन्थ को मुख्य करके की गई है अर्थात् पूर्व का समय कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के उल्लेखों को लक्ष्य करके और उत्तर का समय न्यायावतार को लक्ष्य करके कल्पित किया गया है। इस तरह तीन सिद्धसेनों की एकत्वमान्यता ही सन्मतिसूत्रकार के ठीक समय निर्णय में प्रबल बाधक रही है, इसी के कारण एक सिद्धसेन के विषय अथवा तत्सम्बन्धी घटनाओं को दूसरे सिद्धसेनों के साथ जोड़ दिया गया है, और यही वजह है कि प्रत्येक सिद्धसेन का परिचय थोड़ा-बहुत खिचड़ी बना हुआ है।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./ पृ. १५७)। सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य "अब 'विचारणीय यह है कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन किस सम्प्रदाय के आचार्य थे अर्थात् दिगम्बरसम्प्रदाय से सम्बन्ध रखते हैं या श्वेताम्बरसम्प्रदाय से, और किस रूप में उनका गुण-कीर्तन किया गया है। आचार्य उमास्वाति (मी) और स्वामी समन्तभद्र की तरह सिद्धसेनाचार्य की मान्यता दोनों सम्प्रदायों में पायी जाती है। यह मान्यता केवल विद्वत्ता के नाते आदर-सत्कार के रूप में नहीं और न उनके किसी मन्तव्य अथवा उनके द्वारा प्रतिपादित किसी वस्तुतत्त्व या सिद्धान्तविशेष का ग्रहण करने के कारण ही है, बल्कि उन्हें अपने-अपने सम्प्रदाय के गुरुरूप में माना गया है, गुर्वावलियों तथा पट्टावलियों में उनका उल्लेख किया गया है और उसी गुरुदृष्टि से उनके स्मरण, अपनी गुणज्ञता को साथ में व्यक्त करते हुए, लिखे गये हैं अथवा उन्हें अपनी श्रद्धाञ्जलियाँ अर्पित की गई हैं। (पु. जै.वा.सू./ प्रस्ता. / पृ.१५७)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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