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________________ अ०१५/प्र०२ मूलाचार / २३७ सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। अवराहे पडिकमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं॥६२८॥ अनुवाद-"प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों का धर्म प्रतिक्रमण-सहित है। अर्थात् अपराध हो या न हो, शिष्यों को प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। किन्तु शेष बाईस तीर्थंकरों ने अपराध होने पर ही प्रतिक्रमण करने का उपदेश दिया है।" पूर्ववर्णित प्रमाणों से सिद्ध हो चुका है कि मूलाचार के कर्ता सवस्त्र-पुरुषमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति के विरोधी होने से दिगम्बरपरम्परा के आचार्य हैं। उन्होंने ये गाथाएँ लिखी हैं तथा दिगम्बर-टीकाकार आचार्य वसुनन्दी ने गाथाओं में व्यक्त विचारों के औचित्य का प्रतिपादन किया है। इससे सिद्ध होता है कि इन गाथाओं में कही गई बातें दिगम्बरपरम्परा के अनुकूल हैं। गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती जी ने उपर्युक्त गाथाओं की युक्तिसंगतता इन शब्दों में प्रतिपादित की है "आदिनाथ के तीर्थ के समय भोगभूमि समाप्त होकर ही कर्मभूमि प्रारंभ हुई थी, अतः उस समय के शिष्य बहुत ही सरल, किन्तु जड़ (अज्ञान) स्वभाववाले थे। तथा अन्तिम तीर्थंकर के समय पंचमकाल का प्रारंभ होनेवाला था, अतः उस समय के शिष्य बहुत ही कुटिल-परिणामी और जड़स्वभावी थे, इसीलिए इन दोनों तीर्थंकरों ने छेद अर्थात् भेद के उपस्थापन अर्थात् कथनरूप पाँच महाव्रतों का उपदेश दिया है। शेष बाईस तीर्थंकरों के समय के शिष्य विशेष बुद्धिमान् थे, इसीलिए उन तीर्थंकरों ने मात्र 'सर्वसावद्ययोग' के त्यागरूप एक सामायिक संयम का ही उपदेश दिया है, क्योंकि उनके लिए उतना ही पर्याप्त था। आज भगवान् महावीर का ही शासन चल रहा है, अतः आजकल के सभी साधुओं को भेदरूप चारित्र के पालन का ही उपदेश है।" (भावार्थ / मूला./पू./गा. ५३५-५३७)। 'सपडिक्कमणो धम्मो' गाथा के अर्थ का औचित्य स्वयं मूलाचार-कर्ता के (मूलाचार-पूर्वार्धगत) शब्दों में यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है मज्झिमया दिढबुद्धी एयग्गमणा अमोहलक्खा य। तम्हा हु जमाचरंति तं गरहंता वि सुझंति॥ ६३१॥ पुरिमचरिमादु जम्हा चलचित्ता चेव मोहलक्खा य। तो सव्वपडिक्कमणं अंधलयघोडय दिटुंतो॥ ६३२॥ अनुवाद-"मध्यम तीर्थंकरों के शिष्य दृढ़बुद्धि, एकाग्रमन और अमूढ़ (सोचविचार कर काम करनेवाले) होते थे, अतः जो दोष उनसे होता था, उसके कारण आत्मा की गर्दा करके ही वे शुद्ध हो जाते थे।" (६३१)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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