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________________ अ०२३ बृहत्कथाकोश / ७५९ दिगम्बरपक्ष पुन्नाटसंघ की उत्पत्ति यापनीयों के पुन्नागवृक्षमूलगण से हुई थी, यह मान्यता सर्वथा कपोलकल्पित है। 'पुन्नाट' कर्नाटक का प्राचीन नाम था। उसी के आधार पर पुन्नाट के दिगम्बर जैन मुनियों का संघ 'पुन्नाटसंघ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। इसका प्रतिपादन 'हरिवंशपुराण' के अध्याय (२१) में किया जा चुका है। 'बृहत्कथाकोश' में स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति आदि का समर्थन है, यह मान्यता भी नितान्त असत्य है। उसमें स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, गृहस्थमुक्ति आदि यापनीय-सिद्धान्तों का स्पष्ट शब्दों में निषेध है, इसके प्रचुर प्रमाण प्रस्तुत किये जा चुके हैं। 'हरिवंशपुराण' में भी इन यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। अतः इनके कर्ताओं का पुन्नाटसंघ यापनीयसंघ हो ही नहीं सकता। वह स्पष्टतः दिगम्बरसंघ था। दिगम्बर ग्रन्थ होने के अन्य प्रमाण १. बृहत्कथाकोश के रेवतीकथानक (क्र.७) में अन्यलिंगियों को कुतीर्थलिंगी कहा गया है।१६ यह अन्यलिंगीमुक्ति के निषेध का प्रमाण है, जो यापनीयमत के विरुद्ध है। ___. २. मुनियों के आहारदान की विधि पूर्णतः दिगम्बरमत के अनुसार बतलाई गई है। श्रीषेणमुनि आहारचर्या के लिए गृहों के सामने से निकलते हैं। शूरदेव उनका पड़गाहन (प्रतिग्रह) करता है, पवित्र स्थान में बैठालकर उनके चरणों को धोता है, पूजन करता है, 'नमोऽस्तु' करता है और मन, वचन, काय एवं आहार की शुद्धि निवेदित करता है। पश्चात् आहारदान करता है। मुनि खड़े होकर भोजन करते हैं। आहारदान से शूरदेव के यहाँ पंचाश्चर्य होते हैं।१७ ३. बृहत्कथाकोश में महावीर के पूर्वभवों का दिगम्बरमतानुसार वर्णन किया गया है। श्वेताम्बरसाहित्य में महावीर के २६ पूर्वभवों का वर्णन है, और दिगम्बरग्रन्थों में ३२ का। श्वेताम्बरसाहित्य के अनुसार पहले भव में महावीर नयसार ग्रामचिन्तक थे,१८ जब कि दिगम्बरसाहित्य के अनुसार पुरूरवा भील। बृहत्कथाकोश में दिगम्बरमतानुसार पुरूरवाभील को ही महावीर के पूर्वभव का जीव बतलाया गया है,१९ अतः वह दिगम्बरग्रन्थ है। १६. सम्यग्दर्शनसम्पन्ना जिनोक्तमतसङ्गिनी। कुतीर्थलिङ्गि-पाषण्डचरित-च्युतमानसा॥ २७॥ १७. विद्युल्लतादिकथानक/क्र.७०/श्लोक ८-१२ तथा विष्णुश्रीकथानक/क्र.६६/श्लोक ६-१२,३७-४२ । १८. आचार्य हस्तीमल जी : जैनधर्म का मौलिक इतिहास / भाग १/ पृ. ५४० । १९. मुनिवाक्यं समाकर्ण्य धर्मशीलपुरूरवा॥ ६॥ मरीचिकथानक / क्र.१११ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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