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________________ ३०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ २.२. आक्षेप का निराकरण - डॉ० सागरमल जी ने मुख्तार जी के इस विसंगति-प्रदर्शन पर आक्षेप किया है और यथोक्तनिमित्तः के प्रयोग का औचित्य सिद्ध करने के लिए उसकी जो व्याख्या की है, वह पाणिनि और पतंजलि को भी चक्कर में डाल देने वाली है। वे लिखते हैं-"यथोक्तनिमित्त का पूरा स्पष्टीकरण है-क्षयोपशम के निमित्त आगमों में जैसी तपसाधना बतायी गयी है, वैसी तपसाधना से प्राप्त होनेवाला अर्थात् साधनाजन्य अवधिज्ञान। यहाँ मुख्तार जी कहते हैं कि यदि मूलसूत्र में 'यथोक्त' कहा, तो उसके पहले तत्त्वार्थ के किसी पूर्व सूत्र में उसका उल्लेख होना चाहिए था। किन्तु हमें ध्यान रखना है कि उमास्वाति तो आगमिक परम्परा के हैं, अतः उनकी दृष्टि में यथोक्त का अर्थ है-आगमोक्त। वस्तुतः जो परम्परा आगम को ही नहीं मानती हो, उसको सूत्र में प्रयुक्त यथोक्त शब्द का वास्तविक तात्पर्य कैसे समझ में आयेगा?" (जै.ध.या.स./ पृ. २८४)। ऐसा लगता है जैसे डॉक्टर साहब उमास्वाति के हृदय में निवास करके आये हों और आँखों देखा हाल कह रहे हों। अन्यथा उन्होंने यह कैसे जान लिया कि उमास्वाति की दृष्टि में यथोक्त का अर्थ आगमोक्त है? उनके तो किसी भी उल्लेख से ऐसा सिद्ध नहीं होता। स्वबुद्धि-कल्पित अर्थ को उमास्वाति के नाम पर चढ़ा देना न्यायविरुद्ध है। थोड़ी देर के लिए मान लीजिए कि उमास्वाति आगमिक परम्परा के हैं और सूत्रकार हैं, तो आगमिक परम्परा का होने का अर्थ यह तो नहीं है कि आगम के विषय को स्पष्ट शब्दों में न कहकर ऐसे कूट शब्दों में कहा जाय जो विवक्षित अर्थ का बोध ही न करावें, भ्रम पैदा करें, भूलभुलैयाँ में डाल दें? यदि उमास्वाति को यथोक्तनिमित्तः पद से आगमोक्तनिमित्तः अर्थ अभीष्ट था, तो वे इसी पद का प्रयोग कर सकते थे और आगमोक्तनिमित्तः शब्द से तपोनिमित्तः अर्थ अभिप्रेत था, तो वे इस शब्द का भी प्रयोग कर सकते थे। अन्यत्र तो उन्होंने ऐसे कूट शब्द का प्रयोग नहीं किया, स्पष्ट शब्द में ही प्रतिपादन किया है, जैसे 'यथोक्तमार्गो मोक्षमार्गः' न कह कर 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' कहा है। इसी प्रकार उपर्युक्त सूत्र में यथोक्तनिमित्तः न कहकर आगमोक्तनिमित्तः, तपोनिमित्त: या गुणप्रत्ययः कह सकते थे, किन्तु नहीं कहा। इससे सिद्ध है कि उमास्वाति को यथोक्तनिमित्तः से 'आगमोक्तनिमित्तः' या 'तपोनिमित्तः' अर्थ अपेक्षित नहीं था। सिद्धसेनगणी और हरिभद्रसूरि ने भी उसे इन अर्थों का प्रतिपादक नहीं बतलाया है। इन सबने उसे क्षयोपशमनिमित्तः अर्थ का सूचक कहा है। अतः 'यथोक्तनिमित्तः' पद को 'आगमोक्तनिमित्तः' या 'तपोनिमित्तः' अर्थ का सूचक कहना प्रामाणिक नहीं है। ८९. सिद्धसेनगणी : तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति १/२३/ पृ. ९७, हारिभद्रीयवृत्ति / तत्त्वार्थसूत्र / १/२३ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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