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________________ अ० १६ / प्र० १ तत्त्वार्थसूत्र / ३०७ और यदि उनमें कहीं पर ऐसी असंगति, भेद अथवा विरोध पाया जाता है तो कहना चाहिए कि वे दोनों एक ही आचार्य की कृति नहीं हैं, उनका कर्त्ता भिन्न-भिन्न है और इसलिए सूत्र का वह भाष्य 'स्वोपज्ञ' नहीं कहला सकता। श्वेताम्बरों के तत्वार्थाधिगमसूत्र और उसके भाष्य में ऐसी असंगति, भेद अथवा विरोध पाया जाता है ।" ८५ इसके उन्होंने चार उदाहरण पेश किये हैं, ८६ जिनका सार नीचे दिया जा रहा है। २.१. 'यथोक्तनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्' प्रथम अध्याय में अवधिज्ञान के दो भेद बतलाने के लिए 'द्विविधोऽवधिः' (त. सू./ श्वे./१/२१) सूत्र कहा गया है। उसके भाष्य में स्पष्ट किया गया है कि वे दो भेद हैं: भवप्रत्यय और क्षयोपशमनिमित्त। ८७ इनमें प्रथम देव और नारकियों को होता है और दूसरा शेष जीवों को, यह बतलाने के लिए अगला सूत्र कहा गया है - ' भवप्रत्ययो नारकदेवानाम्' (त.सू./ श्वे. / १/२२), इसके अनुसार दूसरा सूत्र होना चाहिए था 'क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्' । किन्तु इसकी जगह ' यथोक्तनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्' (त.सू./ श्वे./१/२३) पाठ है । क्षयोपशमनिमित्त: के स्थान में यथोक्तनिमित्तः पाठ सर्वथा असंगत है, क्योंकि यथोक्तनिमित्त नाम का कोई अवधिज्ञान नहीं होता, न ही द्विविधोऽवधिः के भाष्य में भवप्रत्यय के साथ यथोक्तनिमित्तः पाठ है । अवधिज्ञान के प्रसंग में 'यथोक्तनिमित्त' का अर्थ है- वह अवधिज्ञान जिसकी उत्पत्ति के निमित्तभूत क्षयोपशम का पूर्व में वर्णन किया गया है। किन्तु तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ( श्वेताम्बर - तत्त्वार्थसूत्र ) के प्रथम - अध्यायगत किसी भी पूर्व सूत्र में उसकी उत्पत्ति के निमित्त का कथन नहीं है । अतः यथोक्तनिमित्तः शब्द का प्रयोग सर्वथा असंगत है। यदि सूत्र और भाष्य दोनों का कर्त्ता एक ही होता तो वह 'भवप्रत्ययो नारकदेवानाम्' के बाद 'क्षयोपशनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्' यही सूत्र निबद्ध करता, जिससे भाष्य में यह लिखने की जरूरत न रहती कि यथोक्तनिमित्तः से तात्पर्य क्षयोपशमनिमित्त:" से है । किन्तु ऐसा नहीं हुआ है। इससे सुस्पष्ट है कि सूत्रकार कोई और है तथा भाष्यकार कोई और। भाष्यकार ने सूत्रकार के सूत्र में कोई परिवर्तन किये बिना भाष्य लिख दिया है। इसीलिए यथोक्तनिमित्तः के प्रयोग से उत्पन्न विसंगति को दूर करने के लिए उन्हें यह लिखना पड़ा है कि यहाँ यथोक्तनिमित्तः का अर्थ क्षयोपशमनिमित्त: है । ८५. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश / पृ. १२६ । ८६. वही / पृ. १२६-१३२ । 44 ८७. 'भवप्रत्ययः क्षयोपशमनिमित्तश्च ।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य १ / २१ । ८८. “ यथोक्तनिमित्तः क्षयोपशमनिमित्त इत्यर्थः ।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य / १ /२३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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