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________________ ३०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ जाय, तो एक मात्र यही उदाहरण उनकी साहित्यिक प्रामाणिकता की कसौटी बन सकता है।" (स.सि./ भा.ज्ञा./ प्रस्ता. / पृ. ३३)। इस प्रकार 'एकादश जिने' सूत्र का दिगम्बर-परम्परानुसार औचित्य सिद्ध हो जाता है। अतः वह दिगम्बरमत के विरुद्ध नहीं है। दूसरे शब्दों में, उसके अनुसार केवलिभुक्ति सिद्ध नहीं होती। इसके विपरीत भाष्यकार साधु के लिए वस्त्रपात्रादि को संयम का साधन मानते हैं, जिससे स्पष्ट है कि वे सवस्त्रमुक्ति के समर्थक हैं और सवस्त्रमुक्ति की व्यवस्था में सात प्रकार का पात्रनिर्योग संभव होने से केवलिभुक्ति मानने में कोई बाधा नहीं आती। अर्थात् भाष्यकार केवलिभुक्ति के प्रतिपादक हैं। यह भी सूत्रकार और भाष्यकार में सम्प्रदायभेद होने का एक प्रबल प्रमाण है। संक्षेप में, तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित निम्नलिखित सिद्धान्त भाष्यकार की मान्यताओं के सर्वथा विरुद्ध हैं १. अन्यलिंगिमुक्ति-निषेध २. गृहिलिंगिमुक्ति-निषेध ३. सवस्त्रमुक्ति-निषेध ४. स्त्रीमुक्ति-निषेध ५. केवलिभुक्ति-निषेध ६. अपरिग्रह की वस्त्रपात्रादिग्रहण-विरोधी परिभाषा ७. तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध हेतुओं की सोलह संख्या भाष्यकार की मान्यताएँ सूत्रकार की इन मान्यताओं के सर्वथा विपरीत हैं। इससे सिद्ध है कि दोनों भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय के अनुयायी हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि सूत्र और भाष्य के कर्ता भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं, एक ही व्यक्ति नहीं। सूत्र और भाष्य में विसंगतियाँ सूत्र और भाष्य भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की कृतियाँ हैं, एक ही व्यक्ति की नहीं, इसका दूसरा प्रमाण यह है कि दोनों में अनेक विसंगतियाँ हैं। सूत्र और भाष्य के एककर्तृत्व का निषेध करते हुए पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार लिखते हैं-"सूत्र और भाष्य जब दोनों एक ही आचार्य की कृति हों, तब उनमें परस्पर असंगति, अर्थभेद, मतभेद अथवा किसी प्रकार का विरोध न होना चाहिए। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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