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________________ ५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ दुःखों को सहने की शक्ति आती है। दुःख सहन करने से अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है।" ५१ किन्तु श्वेताम्बरग्रन्थ कल्पसूत्र में लोच को अनिवार्य नहीं बतलाया गया है। भिक्षुभिक्षुणियाँ कैंची और छुरे से भी मुण्डन करा सकती हैं। उसमें कहा गया है-"वर्षावास में रहे हुए साधुओं और साध्वियों को मस्तक पर गाय के रोम के बराबर भी केश उग आने पर पर्युषण (आषाढ़ी चौमासी से पचासवें दिन की रात्रि) का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। इससे पहले ही उस्तरे से मुंडन अथवा लुंचन करके केशरहित हो जाना चाहिए। पन्द्रह-पन्द्रह दिनों में बालों का व्यपरोपण करना चाहिए। उस्तरे से मुण्डित होनेवाले को मास-मास में मुंडन कराना चाहिए, कैंची से मुंडन करानेवाले को पन्द्रह-पन्द्रह दिनों में तथा लुंचन करनेवाले को छह माह में लुंचन करना चाहिए और स्थविरों को सांवत्सरिक लोच करना चाहिए।"५२ इस तरह एक परम्परा में केशलोच की अनिवार्यता और दूसरी में अननिवार्यता दोनों में महान् चारित्रिक भेद का द्योतन करती हैं। यापनीयसम्प्रदाय श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण मानता था। कल्पसूत्र की उसमें बहुत मान्यता थी। श्रुतसागर सूरि ने लिखा है कि वे कल्पसूत्र का वाचन करते थे।५३ इससे प्रकट है कि यापनीय भी केशलोच को अनिवार्य नहीं मानते थे। उनके मत में भी मुनि उस्तरे या कैंची से मुण्डन करवा सकते थे। यापनीयमत से यह सैद्धान्तिक भिन्नता भगवती-आराधना को यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध नहीं करती। धर्म में श्रद्धा के उपबृंहण, कायक्लेश तप के अनुष्ठान, ५१. क- अप्पा दमिदो लोएण होइ ण सुहे य संगमुवयादि। साधीणदा य णिद्दोसदा य देहे य णिम्ममदा॥ ९०॥ आणक्खिदा य लोचेण अप्पणो होदि धम्मसङ्घा य। उग्गो तवो य लोचो तहेव दुक्खस्स सहणं च॥ ९१॥ भगवती-आराधना। ख- "महती धर्मस्य श्रद्धाऽन्यथा कथमिदं दुःसहं क्लेशमारभत इति । आत्मनो धर्मश्रद्धाप्रकाशनेन परस्यापि धर्मश्रद्धाजननोपबृंहणं कृतं भवति।--- उग्रं च तपः कायक्लेशाख्यं दुःखान्त राणि च सहते।--- दुःखसहनान्निर्जरा भवत्यशुभकर्मणाम्।" वि.टी./भ.आ./गा.९१ । ग- लोच = लुञ्चन, केशों को हाथ से उखाड़ना। 'लोच' संस्कृत शब्द भी है "तथा चेयमदोषा लोचक्रिया।" विजयोदयाटीका / भ.आ. / गा.९०/ पृ.१२५ । ५२. "वासावासं पज्जोसवियाणं नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा परं पज्जोसवणाओ गोलोम प्पमाणमित्ते वि केसे तं रयणिं उवायणावित्तए। अजेणं खुरमुंडेण वा लुक्क-सिरएण वा होयव्वं सिया। पक्खिया आरोवणा, मासिए खुरमुंडए , अद्धमासिए कत्तरिमुंडे, छम्मासिए लोए, संवच्छरिए वा थेरकप्पे।" कल्पसूत्र / प्राकृत भारती जयपुर / सूत्र २८३। ५३. "यापनीयास्तु वेसरा गर्दभा इवोभयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति, कल्पं च वाचयन्ति"। ___ दंसण-पाहुड । टीका / गाथा ११। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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