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________________ अ०१३/प्र०१ भगवती-आराधना / ४९ मूलगुणों और उत्तरगुणों का विधान भगवती-आराधना में मुनि के लिए मूलगुणों और उत्तरगुणों का विधान किया गया है। यथा जदि मूलगुणे उत्तरगुणे य कस्सइ विराहणा होज। पढमे विदिए तदिए चउत्थए पंचमे च वदे॥ ५८६॥ इसकी टीका करते हुए अपराजित सूरि ने मूलगुणों में चारित्र अर्थात् अहिंसादि महाव्रतों का एवं उत्तरगुणों में अनशनादि तपों का समावेश किया है, जैसा कि उनके निम्नलिखित वचनों से सूचित होता है "यदि मूलगुणे उत्तरगुणे च कस्यचिद्विद्यते मूलगुणे, चारित्रे, तपसि वा अनशनादावुत्तरगुणे अतिचारो भवेत् अहिंसादिके व्रते।" (वि.टी./ गा.५८६)। मूलगुणों और उत्तरगुणों का यह विभाजन दिगम्बर-मतानुसार है। श्वेताम्बरमत में मूलगुण २७ माने गये हैं तथा अनेक मूलगुण दिगम्बरमान्य मूलगुणों से भिन्न हैं। इसके अतिरिक्त उनके ग्रन्थों में उत्तरगुणों का उल्लेख नहीं मिलता। श्वेताम्बरमान्य मूलगुणों का वर्णन मूलाचार के अध्याय में द्रष्टव्य है। यतः यापनीय श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण मानते थे, अतः भगवती-आराधना में वर्णित मूलगुण और उत्तरगुण यापनीयमान्यता के विरुद्ध हैं। इससे सिद्ध होता है कि वह यापनीयों का नहीं, अपितु दिगम्बरों का ग्रन्थ है। लोच के ही द्वारा केशत्याग का नियम भगवती-आराधना में साधु के लिए लोच के ही द्वारा केशत्याग का विधान किया गया है, छुरे या कैंची से मुण्डन कराने का विकल्प नहीं है। लोच से केशत्याग के गुण बतलाते हुए ग्रन्थकार कहते हैं-"केशलोच से आत्मा दमित होता है, सुख में आसक्त नहीं होता और स्वाधीन, निर्दोष तथा ममत्वरहित हो जाता है। लोच करने से धर्म में श्रद्धा प्रदर्शित होती है। लोग सोचते हैं कि इसकी धर्म में बहुत श्रद्धा है, यदि न होती तो इतना दुःसह कष्ट क्यों सहता? इससे दूसरों के मन में भी धर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है और बढ़ती है। इस तरह उपबृंहण नामक गुण भी विकसित होता है। लोच से कायक्लेश नामक उग्र तप होता है और अन्य Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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