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________________ अ०१३ / प्र०१ भगवती-आराधना / ५१ दुःखसहन के अभ्यास एवं अशुभकर्मों की निर्जरा के उद्देश्य से केशलोच की अनिवार्यता का विधान उसे दिगम्बरपरम्परा का ही ग्रन्थ सिद्ध करता है। मांस, मधु और मद्य का सर्वथा निषेध भगवती-आराधना में कहा गया है कि मक्खन, मद्य, मांस और मधु ये चार महाविकृतियाँ (चित्त में महान् विकार उत्पन्न करने वाले कारण) हैं। इनके भक्षण से गृद्धि, प्रसंग (बार-बार उन्हीं में प्रवृत्ति), दर्प और असंयम की उत्पत्ति होती है। सर्वज्ञ की आज्ञा के प्रति आदरवान् , पापभीरु और तप में एकाग्रता का अभिलाषी जीव इन महाविकृतियों को सल्लेखना ग्रहण करने के बहुत पहले ही जीवनपर्यन्त के लिए छोड़ चुका होता है।४ एषणासमिति की व्याख्या करते हुए अपराजित सूरि कहते हैं-"साधु टूटे-फूटे करछुल आदि से दिया हुआ अथवा कपाल, जूठे पात्र तथा कमलपत्र या कदलीपत्र आदि में रखकर दिया हुआ आहार ग्रहण न करे। मांस, मधु , मक्खन एवं साबुत (अखण्डित) फल ग्रहण न करे तथा मूल, पत्र, अंकुरित अन्न और कन्द ग्रहण न करे। इनसे जो भोजन छू गया हो, उसे भी ग्रहण न करे।"५५ किन्तु कल्पसूत्र में इन महाविकृतियों को केवल बार-बार खाने का निषेध किया गया है, सर्वथा खाने का नहीं। देखिए "वासावासं पजोसवियाणं नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हट्ठाणं आरोग्गाणं बलियसरीराणं इमाओ नव रसविगईओ अभिक्खणं अभिक्खणं आहारित्तए, तं जहा-खीरे, दहि, नवणीयं, सप्पिं, तिल्लं, गुडं, महुं, मजं, मंसं।" (सूत्र २३६)। अनुवाद-"वर्षावास में श्रमणों और श्रमणियों को, जो हृष्ट-पुष्ट हों, नीरोग हों, बलिष्ठ शरीरवाले हों, उन्हें दूध, दही, मक्खन, घी, तेल, गुड़, मधु, मद्य ५४. चत्तारि महावियडीओ होंति णवणीदमज्जमंसमहू। कंखा-पसंग-दप्पाऽसंजमकारीओ एदाओ॥ २१५॥ आणाभिकंखिणावज्जभीरुणा तबसमाधिकामेण। ताओ जावज्जीवं णिज्जूढाओ पुरा चेव॥ २१६ ॥ भगवती-आराधना। ५५. "न खण्डेन भिन्नेन वा कडकच्छुकेन दीयमानं, कपालोच्छिष्टभाजने पद्मकदलीपत्रादिभाजने निक्षिप्य दीयमानं वा मांसं, मधु , नवनीतं, फलम् अदारितं, मूलं, पत्रं, साङ्करं, कन्दं च वर्जयेत्। तत्संस्पृष्टानि सिद्धान्यपि---न दद्यान्नखादेन्न स्पृशेच्च।" विजयोदयाटीका/भ.आ./गा.१२००/ पृ.६०९। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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