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________________ ५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ और मांस, इन नौ रस-विकृतियों (चित्तविकारोत्पादक रसों) को बार-बार नहीं खाना चाहिए।" ५६ यहाँ, मद्य, मांस, मधु और नवनीत को कभी भी न खाने का उपदेश दिया जाना चाहिए था, जो नहीं दिया गया। केवल बार-बार खाने का निषेध किया गया है, वह भी केवल वर्षावास में। इससे स्पष्ट है कि कल्पसूत्र श्रमण और श्रमणियों को वर्षावास में कभी-कभी मद्य, मांस और मधु खाने की अनुमति देता है, बारबार नहीं। किन्तु वर्षावास के बाद बार-बार खाने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। न केवल कल्पसूत्र में, आचारांग,५७ ज्ञातृधर्मकथा, निशीथसूत्र, दशवैकालिक आदि में भी उपर्युक्त पदार्थों के भक्षण की अनुमति दी गई है। ज्ञातृधर्मकथा में शैलक राजर्षि (जो राजा से मुनि बन गये थे) की कथा है। एक बार वे बीमार पड़ गये। उनके पुत्र राजा मंडुक ने चिकित्सकों को बुलाया और आज्ञा दी कि तुम राजर्षि शैलक की प्रासुक और एषणीय औषध, भेषज एवं भोजन-पान से चिकित्सा करो। तब चिकित्सकों ने साधु के योग्य औषध, भेषज एवं भोजनपान से उनकी चिकित्सा की और मद्यपान करने की सलाह दी। राजर्षि ने वैसा ही किया। फलस्वरूप साधु के योग्य औषध, भेषज, भोजन-पान तथा मद्य के सेवन से शैलक राजर्षि का रोगातङ्क शान्त हो गया। किन्तु वे स्वादिष्ट भोजन और मद्यपान में अत्यन्त आसक्त और मूर्च्छित. हो गये।५८ माननीय पं० दलसुखभाई मालवणिया (प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान्) निशीथ : एक अध्ययन में साधु के मांसादि ग्रहण के विषय में शास्त्रीय विधान को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं "वस्तुविचार में यह स्पष्ट है कि साधु के लिए यह उत्सर्गमार्ग है कि वह मद्य-मांस आदि वस्तुओं को आहार में न ले। अर्थात् उक्त दोषपूर्ण वस्तुओं की ५६. अनुवादक-महोपाध्याय विनयसागर जी / कल्पसूत्र / प्रकाशक-प्राकृत भारती, जयपुर। ५७. आचारांग/द्वितीय श्रुतस्कन्ध/अध्ययन १/उद्देशक १०/सूत्र ५८/सम्पादक पं. बसन्तीलाल नलवाया / प्रकाशक-धर्मदास जैनमित्रमण्डल, रतलाम/१९८२ ई.। ५८. "तए णं तेगिच्छिया मंडुएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठा सेलयस्स रायरिसिस्स अहा पवित्तेहिं ओसह-भेसज-भत्त-पाणेहिं तेगिच्छं आउट्टेति। मज्जपाणयं च से उवदिसंति। तए णं तस्स सेलयस्स अहापवित्तेहिं जाव मज्जपाणेणं रोगायंके उवसंते होत्था, हढे जाव बलियसरीरे (गलियसरीरे) जाए ववगयरोगायंके। तए णं से सेलए तंसि रोगायकंसि उवसंतंसि समाणसि, तंसि विपुलंसि असण-पाण-खाइम-साइमंसि मजपाणए य मुच्छिए गढिए गिद्धे ---।" ज्ञाताधर्मकथांग/अध्ययन ५, शैलक/अनुवादक : मधुकर मुनि/आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, राजस्थान / पृष्ठ १८५। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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