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________________ विंश अध्याय वराङ्गचरित प्रथम प्रकरण वराङ्गचरित के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक डॉ. सागरमल जी जैन ने दिगम्बराचार्य जटासिंहनन्दिकृत वरांगचरित (७ वीं शती ई०) को भी यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने की चेष्टा की है। किन्तु उन्होंने जैसे अन्य दिगम्बरग्रन्थों को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए असत्य हेतुओं एवं हेत्वाभासों का प्रयोग किया है, वैसे ही यहाँ भी किया है। इसका निर्णय वरांगचरित में प्रतिपादित यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों का साक्षात्कार करने से हो जाता है। अतः सर्वप्रथम उनका ही प्ररूपण किया जा रहा है। यापनीयपक्षधर हेतुओं का वर्णन तथा उनकी असत्यता या हेत्वाभासता का उपपादन तदनन्तर किया जायेगा। वराङ्गचरित में यापनीयमतविरुद्ध सिद्धान्त केवलिभुक्तिनिषेध वरांगचरित के निम्नलिखित श्लोकों में अरहन्त भगवान् में क्षुधा, तृषा आदि दोषों का अभाव बतलाया गया है, जो केवलिभुक्ति-निषेध का जाज्वल्यमान प्रमाण है निद्राश्रमक्लेशविषादचिन्ता - क्षुत्तृड्जराव्याधिभौविहीनाः। अविस्मयाः स्वेदमलैरपेता आप्ता भवन्त्यप्रतिमस्वभावाः॥ २५/८७॥ द्वेषश्च रागश्च विमूढता च दोषाशयस्ते जगति प्ररूढाः। न सन्ति तेषां गतकल्मषाणां तानहतस्त्वाप्ततमा वदन्ति॥ २५/८८॥ अनुवाद-"जो निद्रा, श्रम, क्लेश, विषाद, चिन्ता, क्षुधा, तृषा, जरा, व्याधि और भय से रहित हो गये हैं, जिनमें विस्मय का भी अभाव हो गया है तथा पसीना आदि मलों की उत्पत्ति भी जिनमें समाप्त हो गयी है, वे अनुपम स्वभाववाले आत्मा Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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