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________________ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १८९ "असंजदसम्मादिट्ठिसंजदासंजदपमत्तसंजद- अप्पमत्तसंजद - अपुव्वसंजद - अणियट्ठिसंजद- सुहुमसांपराइय-खवगोवसामएस धम्मज्झाणस्स पवृत्ती होदि त्ति जिणोवएसादो ।" (धवला / ष.खं./पु.१३/५,४,२६/पृ.७४) । अ० १४ / प्र० २ “एवमंतोमुहुत्तकालमुवसंतकसाओ सुक्कलेस्सिओ पुधत्तविदक्कवीचारज्झाणं छद्दव्व-णवपयत्थ-विसयमंतोमुहुत्तकालं ज्झायइ ।" ( धवला / ष.खं. / पु.१३ / ५, ४, २६ / पृ.७८)। 1 इन वचनों से स्पष्ट है कि ग्यारहवें गुणस्थान में भी पृथक्त्ववितर्क - सवीचार ध्यान होने की मान्यता दिगम्बरमत में स्वीकृत है । अतः उसे दिगम्बरमत के प्रतिकूल मानना असत्य है। इस हेतु के भी असत्य होने से सिद्ध है कि अपराजितसूरि यापनीयआचार्य नहीं, अपितु दिगम्बराचार्य हैं। इन विविध प्रमाणों से इस तथ्य का उद्घाटन हो जाता है कि यापनीयपक्षधर विद्वानों और विदुषी ने दिगम्बराचार्य अपराजितसूरि को यापनीय - आचार्य सिद्ध करने के लिए जो बारह हेतु प्रस्तुत किये हैं, उनमें से एक तो हेत्वाभास है, शेष सब असत्य हैं। अर्थात् उनका अस्तित्व ही नहीं है । तथा पूर्व में ऐसे सात प्रमाण और उनके पोषक अनेक उपप्रमाण उपस्थित किये गये हैं, जो साबित करते हैं कि अपराजितसूरि दिगम्बराचार्य ही हैं, अतः इस बात में सन्देह के लिए रंचमात्र भी स्थान नहीं रहता कि भगवती - आराधना की विजयोदयाटीका के कर्त्ता अपराजितसूरि का यापनीय - परम्परा से दूर का भी सम्बन्ध नहीं था, वे पक्के दिगम्बर थे । उपसंहार दिगम्बरचार्य होने के प्रमाण सूत्ररूप में अब उन प्रमाणों का संक्षेप में संकलन किया जा रहा है, जो सिद्ध करते हैं कि अपराजितसूरि दिगम्बराचार्य हैं तथा उनके द्वारा रचित विजयोदयाटीका दिगम्बराचार्य की कृति है । वे इस प्रकार हैं १. विजयोदयाटीका में ऐसे सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है, जिनसे सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, अन्यलिंगिमुक्ति और केवलिभुक्ति, इन यापनीयमान्यताओं का निषेध होता है । २. इसमें कहा गया है कि सचेल अपवादलिंग मोक्ष का उपाय नहीं है। वह परिग्रहधारी गृहस्थों का लिंग है, अतः उसका अंगीकार मुनियों को निन्दा का पात्र बनाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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