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________________ ३७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र० २ शोषमुपयाति एव च वितानितः सूर्यरश्मिवाय्वभिहतः क्षिप्रं शोषमुपयाति न च संहते - ।" ( तत्त्वार्थभाष्य / २/५२/पृ.१३२-१३४)। 'आयुर्विपाकं कर्म द्विविधं सोपक्रमं निरुपक्रमं च । तत्र यथार्द्रवस्त्रं वितानितं लघीयसा कालेन शुष्येत्तथा सोपक्रमम् । यथा च तदेव सम्पिण्डितं चिरेण संशुष्येदेवं निरुपक्रमम् । यथा वाग्निः शुष्के कक्षे मुक्तो वातेन समन्ततो युक्तः क्षेपीयसा कालेन दहेत् तथा सोपक्रमम् । यथा वा स एवाग्निस्तृणराशौ क्रमशोऽवयवेषु न्यस्तश्चिरेण दहेत् तथा निरुपक्रमम् । " ( योगभाष्य ३ / २२) । 44 'व्यासभाष्य का ठीक समय मालूम नहीं है, फिर भी वह योगसूत्र के बाद का तो है ही, इसलिए ईस्वी सन् ३०० से पहले का नहीं हो सकता और तब यदि तत्त्वार्थभाष्य के उदाहरण व्यासभाष्य से ही लिये गये हैं, तो उमास्वाति विक्रम की चौथी शताब्दी के लगभग ठहरेंगे।" (जै. सा. इ./ द्वि.सं./ पृ. ५४५-५४६)। 44 प्रेमी जी तत्त्वार्थसूत्रकार और भाष्यकार को अभिन्न मानते हैं, इसलिए उन्होंने भाष्यकार के काल को तत्त्वार्थसूत्रकार का काल मान लिया है। वास्तव में दोनों भिन्नभिन्न व्यक्ति हैं, अतः विक्रम की चौथी शताब्दी का अनुमान भाष्यकार के विषय में समझना चाहिए । किन्तु हम पूर्व में देख चुके हैं कि भाष्य में सर्वार्थसिद्धि का अनुकरण किया गया है और सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद स्वामी ने भाष्य की दिगम्बरमत-विरुद्ध मान्यताओं का खण्डन भी नहीं किया है, जैसा कि अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में किया है, अतः भाष्यकार पाँचवी शती ई० के पूर्वार्ध में हुए पूज्यपाद स्वामी से उत्तरवर्ती सिद्ध होते हैं। दूसरी तरफ नाग्न्यपरीषह को सचेल साधु पर घटाने के लिए जिनभद्रगणीक्षमाश्रमण - कृत विशेषावश्यकभाष्य में जो लोकरूढनाग्न्य या उपचरितनाग्न्य की कल्पना की गयी है, वह तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में नहीं मिलती। विशेषावश्यकभाष्य की रचना वि० सं० ६६६ ( ई० सन् ६०९) में हुई थी ( साध्वी संघमित्रा : जैनधर्म के प्रभावक आचार्य/पृ. ३०८), अतः तत्त्वार्थाधिगमभाष्य का उसके पूर्व लिखा जाना सुनिश्चित है । इस तरह यह निर्णीत होता है कि उसकी रचना छठी शती ई० के पूर्वार्ध में हुई थी। तत्त्वार्थसूत्र का रचनाकाल ईसा की द्वितीय शताब्दी का पूर्वार्ध है, यह 'आचार्य कुन्दकुन्द का समय' नामक दशम अध्याय के प्रथम प्रकरण में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। प्रस्तुत अध्याय के षष्ठ प्रकरण में भी इस पर प्रकाश डाला जायेगा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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