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________________ तीनों खण्डों की विषयवस्तु का परिचय [उनतीस] (४५० ई०) के पूज्यपादस्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में दिगम्बरजैनमत का प्रतिपादन किया है। यह भी इस बात का प्रमाण है कि दिगम्बर जैनमत इसके बहुत पहले से प्रचलित था। अतः यह मान्यता मिथ्या सिद्ध हो जाती है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने दिगम्बरमत की स्थापना की थी। ३. उपर्युक्त देवगिरि-ताम्रपत्रलेख से सिद्ध है कि ईसा की पाँचवी शताब्दी तक निर्ग्रन्थ शब्द दिगम्बरजैन मुनियों के लिए लोकप्रसिद्ध था। और ईसापूर्व तीसरी शताब्दी के अशोक के सातवें स्तम्भलेख में निर्ग्रन्थों का उल्लेख हुआ है। यह इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि दिगम्बरजैनसंघ ईसापूर्व तृतीय शताब्दी में विद्यमान था। ईसापूर्व छठी शताब्दी के बुद्धवचनों के संग्रहरूप प्राचीन पिटकसाहित्य में तथा ईसा की प्रथम शताब्दी से लेकर चतुर्थ शताब्दी तक के बौद्धसाहित्य में दिगम्बरजैन मुनियों को निर्ग्रन्थ शब्द से अभिहित किया गया है। इन प्रमाणों से भी श्वेताम्बर विद्वानों की यह मान्यता कपोलकल्पित सिद्ध हो जाती है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने दिगम्बरजैनमत का प्रवर्तन किया था। ४. श्वेताम्बरसंघ की उत्पत्ति के पूर्व निर्ग्रन्थसंघ के सभी साधु अचेल (नग्न) होते थे, अतः निर्ग्रन्थ शब्द जैनसाधु का पर्यायवाची बन गया था। इसलिए जब निर्ग्रन्थसंघ के कुछ साधुओं ने वस्त्रपात्र धारण कर श्वेताम्बरसंघ बना लिया, तब भी उन्होंने जैनसाधु के रूप में अपनी पहचान कराने हेतु अपने लिए 'निर्ग्रन्थ' शब्द का प्रयोग प्रचलित रखा। किन्तु यह प्रयोग उनके शास्त्रों तक ही सीमित रहा। इस नाम से वे अपने संघ को प्रसिद्ध नहीं कर सके, क्योंकि यह पहले से ही अचेल (दिगम्बर) जैनश्रमणसंघ के लिए प्रसिद्ध था और यह (निर्ग्रन्थ) शब्द श्वेताम्बरों की साम्प्रदायिक विशिष्टता के विज्ञापन में भी बाधक था। इसलिए उन्होंने अपने संघ को श्वेतपटसंघ नाम से प्रसिद्ध किया। ईसापूर्व प्रथम शती के बौद्धग्रन्थ अपदान में श्वेताम्बरों को सेतवत्थ (श्वेतवस्त्र) नाम से अभिहित किया गया है और पाँचवीं शताब्दी ई० के देवगिरि-ताम्रपत्रलेख में उनके संघ का उल्लेख श्वेतपटमहाश्रमणसंघ शब्द से हुआ है। इससे सिद्ध है कि श्वेताम्बरसंघ आरंभ से ही 'श्वेतपट' नाम से प्रसिद्ध रहा है। और 'निर्ग्रन्थ' शब्द उनके शास्त्रों में भी मिलता है। इससे सिद्ध होता है निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बरसंघ) श्वेताम्बरसंघ से प्राचीन है। ५. यापनीयसंघ का सर्वप्रथम उल्लेख पाँचवीं शती ई० (सन् ४७०-४९० ई०) के कदम्बवंशीय राजा मृगेशवर्मा के हल्सी-ताम्रपत्रलेख में उपलब्ध होता है। इससे पूर्व किसी भी शिलालेख या ग्रन्थ में उसका उल्लेख नहीं मिलता। इससे सिद्ध होता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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