SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 679
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०१८/प्र०७ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६२३ अपराजितसूरि ने भी श्वेताम्बर-आगमों के लिए 'सूत्र' शब्द का प्रयोग करते हुए उनसे प्रमाण देकर यह सिद्ध किया है कि उनमें भी एकान्त अचेलत्व को ही मोक्षमार्ग प्रतिपादित किया गया है, पर इससे वे श्वेताम्बर या यापनीय सिद्ध नहीं होते। उन्होंने अपनी विजयोदयाटीका में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और केवलिभुक्ति का स्पष्ट शब्दों में निषेध किया है, जिससे उनका दिगम्बरत्व प्रमाणित है। यह अपराजितसूरिवाले चतुर्दश अध्याय में सिद्ध किया जा चुका है। इस प्रकार सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण माननेवालों की परम्परा के नहीं हैं, अतः उन्हें उक्त परम्परा का मानने का हेतु असत्य है। यापनीयपक्ष ___ डॉ० पटोरिया-सन्मतिसूत्र की ‘एवं एगे आया' (१/४९), 'जं च पुण' (३/११) तथा 'जंपंति अत्थि' (३/१३) गाथाएँ श्वेताम्बर-आगमों की गाथाओं एवं सूत्रों से साम्य रखती हैं।६० अतः श्वेताम्बर-आगमों का अनुसरण करने से सन्मतिसूत्रकार यापनीय सिद्ध होते हैं।१६१ दिगम्बरपक्ष इसका समाधान पूर्व में अनेकत्र किया जा चुका है कि दिगम्बरग्रन्थों की जिन गाथाओं का श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाओं या सूत्रों से अंशतः या पूर्णतः साम्य है, वे दोनों सम्प्रदायों को अपनी अविभक्त निर्ग्रन्थ अवस्थाक की समान आचार्य-परम्परा से उत्तराधिकार में प्राप्त हुई हैं। अतः ग्रन्थ में उनकी उपलब्धि के आधार पर सम्प्रदायविशेष का निर्णय नहीं किया जा सकता। इस प्रकार यह हेतु भी असत्य है। यापनीयपक्ष ___डॉ० पटोरिया-यापनीयग्रन्थ मूलाचार की गाथाओं से सन्मतिसूत्र की गाथाओं का साम्य है। डॉ० उपाध्ये ने अपने पूर्वोक्त ग्रन्थ की प्रस्तावना में उन गाथाओं की सूची दी है। यतः मूलाचार यापनीयग्रन्थ है, अतः यह गाथासाम्य सिद्धसेन के यापनीय होने का प्रमाण है।६२ दिगम्बरपक्ष ___ यह भी पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है कि मूलाचार विशुद्ध दिगम्बरग्रन्थ है, अतः उसकी गाथाओं से सन्मतिसूत्र की गाथाओं का साम्य होना सन्मतिसूत्र के दिगम्बर १६०. 'एगे आया। एगे दंडे। एगा किरिया।' स्थानांगसूत्र २/३/४ १६१. यापनीय और उनका साहित्य / पृ. १४४। १६२. वही/प. १४५। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy