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________________ अ०२० / प्र०२ वराङ्गचरित / ६७७ एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयेण णिहिटो। अरहंतेहिं जदीणं ववहारो अण्णहा भणिदो॥ २/९७॥ प्र.सा.। इन दोनों गाथाओं में यति (जदीण) शब्द का प्रयोग किया गया है। समन्तभद्र स्वामी के स्वयम्भूस्तोत्रगत निम्न पद्य में भी 'यति' का सम्बोधनरूप 'यते' शब्द प्रयुक्त हुआ है शशिरुचिशुचिशुक्ललोहितं सुरभितरं विरजो निजं वपुः। तव शिवमतिविस्मयं यते! यदपि च वाङ्मनसीयमीहितम्॥ ११३॥ इसके अतिरिक्त पाल्यकीर्ति शाकटायन के अलावा अन्य किसी यापनीय आचार्य या मुनि के साथ 'यतिग्रामाग्रणी' उपाधि के प्रयुक्त होने का उदाहरण उपलब्ध नहीं है। अतः 'यति' शब्द का प्रयोग यापनीय होने का असाधारणधर्म या लक्षण न होने से यह हेतु भी हेत्वाभास है। वरांगचरित में श्वेताम्बरसाहित्य का अनुसरण नहीं यापनीयपक्ष “यापनीय आचार्य प्राचीन श्वेताम्बर आचार्यों के ग्रन्थों को पढ़ते थे। जटासिंहनन्दी के द्वारा प्रकीर्णकों, आवश्यकनियुक्ति तथा सिद्धसेन के सन्मतितर्क और विमलसूरि के पउमचरिय का अनुसरण यही बताता है कि वे यापनीयसम्प्रदाय से सम्बन्धित रहे होंगे।" (जै.ध.या.स./पृ. १८७)। दिगम्बरपक्ष सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य नामक अध्याय (१८) में सिद्ध किया जा चुका है कि वे दिगम्बर थे, न कि श्वेताम्बर या यापनीय। अतः ‘सन्मतिसूत्र' का अनुसरण करने से जटासिंहनन्दी यापनीय सिद्ध नहीं होते। फलस्वरूप प्रस्तुत हेतु असत्य है। तथा प्रकीर्णक साहित्य की जिन गाथाओं को वरांगचरित में रूपान्तरित माना गया है, वे श्वेताम्बर-प्रकीर्णक ग्रन्थों की नहीं हैं, अपितु दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की तथा दिगम्बरग्रन्थ 'भगवती-अराधना' एवं 'मूलाचार' की हैं। यह 'आचार्य कुन्दकुन्द का समय' नामक दशम अध्याय में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। (देखिये, अध्याय १०/ प्रकरण १/शीर्षक ८)। इसका एक प्रमाण यह है कि भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च। आसवसंवरणिजरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं॥ १३॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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