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________________ अ०१८ / प्र०१ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५०१ दिवाकर के उपयोगाऽभेदवाद की तथैव दिवाकर की कृति सन्मतितर्क के टीकाकार मल्लवादी के उपयोग-योगपद्यवाद की विस्तृत समालोचना की है। इससे तथा मल्लवादी के द्वादशारनयचक्र के उपलब्ध प्रतीकों में दिवाकर का सूचन मिलने और जिनभद्रगणी का सूचन न मिलने से मल्लवादी जिनभद्र से पूर्ववर्ती और सिद्धसेन मल्लवादी से भी पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। मल्लवादी को यदि विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्वार्ध में मान लिया जायतो सिद्धसेन दिवाकर का समय जो पाँचवी शताब्दी निर्धारित किया गया है, वह अधिक सङ्गत लगता है। "(द्वितीय) पूज्यपाद देवनन्दी ने अपने जैनेन्द्रव्याकरण के 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' इस सूत्र में सिद्धसेन के मतविशेष का उल्लेख किया है और वह यह है कि सिद्धसेन के मतानुसार 'विद्' धातु के 'र' का आगम होता है, चाहे वह धातु सकर्मक ही क्यों न हो। देवनन्दी का यह उल्लेख बिलकुल सच्चा है, क्योंकि दिवाकर की जो कुछ थोड़ी- सी संस्कृत कृतियाँ बची हैं, उनमें से उनकी नवमी द्वात्रिंशिका के २२वें पद्य में "विद्रतेः' ऐसा 'र' आगमवाला प्रयोग मिलता है। अन्य वैयाकरण जब 'सम्' उपसर्ग पूर्वक और अकर्मक 'विद्' धातु के 'र' आगम स्वीकार करते हैं, तब सिद्धसेन ने अनुपसर्ग और सकर्मक 'विद्' धातु का 'र' आगमवाला प्रयोग किया है। इसके सिवाय, देवनन्दी पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि नामकी तत्त्वार्थ-टीका के सप्तम अध्यायगत १३वें सूत्र की टीका में सिद्धसेन दिवाकर के एक पद्य का अंश 'उक्तं च' शब्द के साथ उद्धृत पाया जाता है और वह है 'वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते।' यह पद्यांश उनकी तीसरी द्वात्रिंशिका के १६वें पद्य का प्रथम चरण है। पूज्यपाद देवनन्दी का समय वर्तमान मान्यतानुसार विक्रम की छठी शताब्दी का पूर्वार्ध है अर्थात् पाँचवीं शताब्दी के अमुक भाग से छठी शताब्दी के अमुक भाग तक लम्बा है। इससे सिद्धसेन दिवाकर की पाँचवीं शताब्दी में होने की बात, जो अधिक सङ्गत कही गई है, उसका खुलासा हो जाता है। दिवाकर को देवनन्दी से पूर्ववर्ती या देवनन्दी के वृद्ध समकालीनरूप में मानिये, तो भी उनका जीवनसमय पाँचवीं शताब्दी से अर्वाचीन नहीं ठहरता। - "इनमें से प्रथम प्रमाण तो वास्तव में कोई प्रमाण ही नहीं है, क्योंकि वह 'मल्लवादी को यदि विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्वार्ध में मान लिया जाय तो' इस भ्रान्त कल्पना पर अपना आधार रखता है। परन्तु क्यों मान लिया जाय अथवा क्यों मान लेना चाहिये, इसका कोई स्पष्टीकरण साथ में नहीं है। मल्लवादी का जिनभद्र से पूर्ववर्ती होना प्रथम तो सिद्ध नहीं है, सिद्ध होता भी, तो उन्हें जिनभद्र के समकालीन वृद्ध मानकर अथवा २५ या ५० वर्ष पहले मानकर भी उस पूर्ववर्तित्व को चरितार्थ किया जा सकता है, उसके लिये १०० वर्ष से भी अधिक समय पूर्व की बात मान लेने की कोई जरूरत नहीं रहती। परन्तु वह सिद्ध ही नहीं है, क्योंकि उनके जिस Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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