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________________ ५०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० १ उपयोग - यौगपद्यवाद की विस्तृत समालोचना जिनभद्र के दो ग्रन्थों में बतलाई जाती है, उनमें कहीं भी मल्लवादी अथवा उनके किसी ग्रन्थ का नामोल्लेख नहीं है, होता तो पण्डितजी उस उल्लेखवाले अंश को उद्धृत करके ही सन्तोष धारण करते, उन्हें यह तर्क करने की जरूरत ही न रहती और न रहनी चाहिये थी कि " मल्लवादी के द्वादशारनयचक्र के उपलब्ध प्रतीकों में दिवाकर का सूचन मिलने और जिनभद्र का सूचन न मिलने से मल्लवादी जिनभद्र से पूर्ववर्ती हैं।" यह तर्क भी उनकी अभीष्ट - सिद्धि में कोई सहायक नहीं होता, क्योंकि एक तो किसी विद्वान् के लिये यह लाजिमी नहीं कि वह अपने ग्रन्थ में पूर्ववर्ती अमुक-अमुक विद्वानों का उल्लेख करे ही करे। दूसरे, मूल द्वादशारनयचक्र के जब कुछ प्रतीक ही उपलब्ध हैं, वह पूरा ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, तब उसके अनुपलब्ध अंशों में भी जिनभद्र का अथवा उनके किसी ग्रन्थादिक का उल्लेख नहीं, इसकी क्या गारण्टी ? गारण्टी के न होने और उल्लेखोपलब्धि की सम्भावना बनी रहने से मल्लवादी को जिनभद्र का पूर्ववर्ती बतलाना तर्कदृष्टि से कुछ भी अर्थ नहीं रखता। तीसरे, ज्ञान-बिन्दु की परिचयात्मक प्रस्तावना में पण्डित सुखलाल जी स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि "अभी हमने उस सारे सटीक नयचक्र का अवलोकन करके देखा, तो उसमें कहीं भी केवलज्ञान और केवलदर्शन (उपयोगद्वय) के सम्बन्ध में प्रचलित उपर्युक्त वादों (क्रम, युगपत् और अभेद) पर थोड़ी भी चर्चा नहीं मिली । यद्यपि सन्मतितर्क की मल्लवादि - कृत - टीका उपलब्ध नहीं है, पर जब मल्लवादी अभेदसमर्थक दिवाकर के ग्रन्थ पर टीका लिखें, तब यह कैसे माना जा सकता है कि उन्होंने दिवाकर के ग्रन्थ की व्याख्या करते समय उसी में उनके विरुद्ध अपना युगपत् - पक्ष किसी तरह स्थापित किया हो। इस तरह जब हम सोचते हैं, तब यह नहीं कह सकते हैं कि अभयदेव के युगपद्वाद के पुरस्कर्तारूप से मल्लवादी के उल्लेख का आधार नयचक्र या उनकी सन्मतिटीका में से रहा होगा ।" साथ ही, अभयदेव ने सन्मतिटीका में विशेषणवती की " केई भांति जुगवं जाणइ पासइ य केवली णियमा" इत्यादि गाथाओं को उद्धृत करके उनका अर्थ देते हुए 'केई' पद के वाच्यरूप में मल्लवादी का जो नामोल्लेख किया है और उन्हें युगपवाद का पुरस्कर्ता बतलाया है, उनके उस उल्लेख की अभ्रान्तता पर सन्देह व्यक्त करते हुए, पण्डित सुखलाल जी लिखते हैं- " अगर अभयदेव का उक्त उल्लेखांश अभ्रान्त एवं साधार है, तो अधिक से अधिक हम यही कल्पना कर सकते हैं कि मल्लवादी का कोई अन्य युगपत् - पक्ष समर्थक छोटा-बड़ा ग्रन्थ अभयदेव के सामने रहा होगा अथवा ऐसे मन्तव्यवाला कोई उल्लेख उन्हें मिला होगा ।" और यह बात ऊपर बतलाई ही जा चुकी है कि अभयदेव से कई शताब्दी पूर्व के प्राचीन आचार्य हरिभद्रसूरि ने उक्त 'केई' पद के वाच्यरूप में सिद्धसेनाचार्य का नाम उल्लेखित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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