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________________ अ० १८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५१३ इस प्रथम द्वात्रिंशिका के कर्ता सिद्धसेन ही यदि अगली चार द्वात्रिंशिकाओं के भी कर्ता हैं, जैसा कि पं० सुखलालजी का अनुमान है, तो ये पाँचों ही द्वात्रिंशिकाएँ, जो वीरस्तुति से सम्बन्ध रखती हैं और जिन्हें मुख्यतया लक्ष्य करके ही आचार्य हेमचन्द्र ने 'क्व सिद्धसेनस्तुतयो महार्थाः ' जैसे वाक्य का उच्चारण किया जान पड़ता है, स्वामी समन्तभद्र के उत्तरकाल की रचनाएँ हैं । इन सभी पर समन्तभद्र के ग्रन्थों की छाया पड़ी हुई जान पड़ती है।" (पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता./पृ. १५४-१५६) । " इस तरह स्वामी समन्तभद्र 'न्यायावतार' के कर्ता, 'सन्मति' के कर्ता और उक्त द्वात्रिंशिका अथवा द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता, तीनों ही सिद्धसेनों से पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। उनका समय विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी है, जैसा कि दिगम्बरपट्टावली ५१ में शकसंवत् ६० (वि० सं० १९५) के उल्लेखानुसार दिगम्बर समाज में आमतौर पर माना जाता है। श्वेताम्बर पट्टावलियों में उन्हें सामन्तभद्र नाम से उल्लेखित किया है और उनके समय का पट्टाचार्यरूप में प्रारंभ वीरनिर्वाणसंवत् ६४३ अर्थात् वि० सं० १७३ से बतलाया है। साथ ही यह भी उल्लेखित किया है कि उनके पट्टशिष्य ने वीर नि० सं० ६९५ ( वि० सं० २२५) ५२ में एक प्रतिष्ठा कराई है, जिससे उनके समय की उत्तरावधि विक्रम की तीसरी शताब्दी के प्रथम चरण तक पहुँच जाती है । ५३ इससे समय - सम्बन्धी दोनों सम्प्रदायों का कथन मिल जाता है और प्राय: एक ही ठहरता है ।" (पु. जै. वा. सू./ प्रस्ता. / पृ.१५६)। ७.५. आद्य जैन तार्किक सिद्धसेन नहीं, अपितु समन्तभद्र "ऐसी वस्तुस्थिति में पं० सुखलाल जी का अपने एक दूसरे लेख 'प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन दिवाकर' में, जो कि भारतीयविद्या के उसी अङ्क (तृतीय भाग) में प्रकाशित हुआ है, इन तीनों ग्रन्थों के कर्ता तीन सिद्धसेनों को एक ही सिद्धसेन बतलाते हुए यह कहना कि 'यही सिद्धसेन दिवाकर " आदि जैनतार्किक ", " जैन परम्परा में तर्कविद्या का और तर्कप्रधान संस्कृत वाङ्मय का आदि प्रणेता", " आदि जैनकवि ", "आदि जैनस्तुतिकार", " आद्य जैनवादी" और " आद्य जैनदार्शनिक" हैं? क्या अर्थ रखता है और कैसे सङ्गत हो सकता है? इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। सिद्धसेन ५१. देखिए, हस्तलिखित संस्कृत ग्रन्थों के अनुसन्धान-विषयक डॉ० भाण्डारकर की सन् १८८३-८४ की रिपोर्ट/ पृ. ३२०, मिस्टर लेविस राइस की 'इन्स्क्रिपशन्स ऐट् श्रवणबेलगोल' की प्रस्तावना और कर्णाटकशब्दानुशासन की भूमिका । (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता/पृ.१५६) । ५२. कुछ पट्टावलियों में यह समय वी० नि० सं० ५९५ अथवा विक्रम संवत् १२५ दिया है, जो किसी गलती का परिणाम है और मुनि कल्याणविजय ने अपने द्वारा सम्पादित 'तपागच्छपट्टावली' में उसके सुधार की सूचना की है। (पु. जै. वा.सू./ प्रस्ता/ पृ. १५६) । ५३. देखिये, मुनि श्री कल्याणविजय जी द्वारा सम्पादित 'तपागच्छपट्टावली / पृ. ७९-८१ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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