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________________ ६६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२० / प्र०१ और राजा वरांग के लिए 'दिगम्बर' शब्द का प्रयोग तो दिगम्बर, निर्ग्रन्थ, निरस्तभूषाः (३०/२) और जातरूप शब्दों से कई बार किया गया है, किन्तु उनके वस्त्रधारी होने का कथन ग्रन्थ में कहीं भी नहीं मिलता। इसलिए 'मुनि के लिए दिगम्बर शब्द का प्रयोग एक ही बार मिलता है,' मान्य लेखक का यह कथन भी सत्य नहीं है। और यदि हेमन्तकाल में शीतपरीषह सहते समय ही 'दिगम्बर' शब्द का प्रयोग मिलता, तो इससे यह तो सिद्ध नहीं हो सकता था कि शेष समय में वरांग मुनि या अन्य कोई मुनि सवस्त्र रहते थे। यह तो तभी सिद्ध होता, जब ग्रन्थ में ऐसा कथन होता। ऐसा कथन नहीं है, इससे सिद्ध है कि हेमन्तकाल के अतिरिक्त अन्य कालों में वरांग मुनि के सवस्त्र रहने की कल्पना उक्त यापनीयपक्षधर ग्रन्थ लेखक ने दुरभिप्रायवश स्वयं की है, वरांगचरित में उसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। तथा जो मुनि हेमन्तकाल में नग्न रह सकते थे, वे अन्य कालों में वस्त्रधारण कर लेते होंगे, यह मान्यता भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि ऐसा करने का कोई प्रयोजन दृष्टिगोचर नहीं होता। २.५. "विशीर्णवस्त्रा' मुनियों का नहीं, आर्यिकाओं का विशेषण उपर्युक्त यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखक महोदय ने लिखा है कि वरांगचरित में "मुनियों के लिए सामान्यतया 'विशीर्णवस्त्रा' शब्द का प्रयोग हुआ है।" (जै.ध.या.स./पृ.१९७)। यह मिथ्या निष्कर्ष भी उनकी संस्कृत भाषा से अनभिज्ञता का अथवा ग्रन्थ का गंभीरता-पूर्वक अध्ययन न करने का अथवा छलवाद का उदाहरण है। 'विशीर्णवस्त्रा' (छिन्नभिन्न-वस्त्रवाली) विशेषण का प्रयोग वरांग आदि मुनियों के लिए नहीं, अपितु आर्यिकादीक्षा ग्रहण कर लेनेवाली उनकी पत्नियों के लिए हुआ है। वरांगचरित का इकतीसवाँ सर्ग नरेन्द्रपत्नियों के तपश्चरण के वर्णन से शुरू होता है और १५वें श्लोक तक चलता रहता है। प्रथम श्लोक में कहा गया है नरेन्द्रपल्यः श्रुतिशीलभूषा निर्वेदसंवर्धितधर्मरागाः। विशुद्धिमत्यः प्रतिपन्नदीक्षास्तदा बभूवुः परिपूर्णकामाः॥ ३१/१॥ अनुवाद-"राजा वरांग की रानियाँ श्रुत और शील से अलंकृत थीं, वैराग्य से उनका धर्मानुराग बढ़ गया था, उनकी बुद्धि विशुद्ध थी। दीक्षा लेने पर उनकी अन्तिम कामना भी पूर्ण हो गई थी।" इस क्रम से उनके धर्माचरण का वर्णन करते हुए १३वें श्लोक में कहा गया है तपोऽग्निनिर्दग्धविवर्णदेहा व्रतोपवासैरकृशाः कृशाङ्गयः। विशीर्णवस्त्रावृतगात्रयष्टयस्ताः काष्ठमात्रप्रतिमा बभूवुः॥ ३१/१३॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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