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________________ [चालीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ चतुर्दश अध्याय-जिन विद्वानों ने भगवती-आराधना को यापनीयग्रन्थ माना है, उन्होंने ही उसके टीकाकार अपराजितसूरि को भी यापनीय आचार्य कहा है। इसका प्रमुख कारण यह बतलाया है कि अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर-आगमों से वे उद्धरण दिये हैं, जिनमें यह कहा गया है कि साधु विशेष परिस्थितियों में अपवादरूप से वस्त्र धारण कर सकता है। इस प्रकार उन्होंने श्वेताम्बर-आगमों के आधार पर विशेष परिस्थिति में साधु के अपवादरूप से वस्त्रधारण को उचित ठहराया है। श्वेताम्बरआगमों के विधान को श्वेताम्बर के अतिरिक्त वही व्यक्ति मान्यता दे सकता है, जो यापनीय हो, अतः सिद्ध है कि अपराजितसूरि यापनीय हैं। उपर्युक्त विद्वानों की यह मान्यता भी महान् भ्रान्ति का परिणाम है। प्रस्तुत अध्याय में इसका निराकरण किया गया है। निराकरण हेतु सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि अपराजित सूरि ने श्वेताम्बर-आगमों से उद्धरण देकर साधु के लिए विशेष परिस्थिति में वस्त्रधारण का औचित्य नहीं ठहराया है, अपितु श्वेताम्बर शंकाकार ('अथैवं मन्यसे पूर्वागमेषु---' वि.टी./भ.आ./गा.४२३/पृ.३२३, ३२४) का ध्यान इस तथ्य की ओर आकृष्ट किया है कि श्वेताम्बर-आगमों में भी मोक्ष के लिए अचेलत्व को आवश्यक बतलाया गया है और भिक्षुओं को वस्त्रग्रहण की अनुमति विशेष परिस्थितियों में ही दी गयी है। वे विशेष परिस्थितियाँ तीन हैं- १. नग्न रहने में लज्जा की अनुभूति होना, २. पुरुषचिह्न का अशोभनीय होना और ३. परीषहसहन में असमर्थ होना। किन्तु विशेष परिस्थिति में जो उपकरण ग्रहण किया जाता है, उसके ग्रहण की विधि तथा ग्रहण किये गये उपकरण के त्याग का कथन भी आगम में आवश्यक कहा गया है। अतः जब आगम के आधार पर विशेष परिस्थिति में साधु के लिए वस्त्रग्रहण का विधान बताया जाता है, तब उसके त्याग का विधान भी अवश्य बताया जाना चाहिए। (वि.टी./भ.आ./गा. ४२३/पृ.३२५)। अपराजितसूरि ने.'अचेलता' के विरोधी श्वेताम्बरागम-वचन को स्पष्ट शब्दों अप्रामाणिक ठहराया है। श्वेताम्बरपक्ष को सम्बोधित करते हुए वे कहते हैं कि यदि आप यह मानते हैं कि सूत्र (आगम) में पात्र की प्रतिष्ठापना कही गयी है, अतः संयम के लिए पात्रग्रहण आगमोक्त सिद्ध होता है, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अचेलता का अर्थ है परिग्रहत्याग, और पात्र परिग्रह है, अतः उसका भी त्याग आगमसिद्ध ही है-"पात्रप्रतिष्ठापना सूत्रेणोक्तेति संयमार्थं पात्रग्रहणं सिध्यतीति मन्यसे नैव, अचेलता नाम परिग्रहत्यागः, पात्रं च परिग्रह इति तस्यापि त्याग सिद्ध एवेति।" (वि.टी./भ.आ./गा. ४२३/ पृ. ३२५)। इस प्रकार अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर-आगमों के आधार पर दिगम्बरमत की ही पुष्टि की है, श्वेताम्बरमत की नहीं। उन्होंने जोर देकर कहा है कि मुक्ति का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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