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________________ तीनों खण्डों की विषयवस्तु का परिचय [इकतालीस] अभिलाषी मुनि वस्त्र ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वस्त्र मुक्ति का उपाय नहीं है तथा केवल वस्त्र का त्याग करने और शेष परिग्रह रखने से जीव संयत (मुनि) नहीं होता"मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात्।" (वि.टी./ भ.आ./ गा.८४)। "नैव संयतो भवतीति वस्त्रमात्रत्यागेन शेषपरिग्रहसमन्वितः।" (वि.टी./ भ. आ./गा. १११८)। इन वचनों से स्पष्ट है कि अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर-आगमों के प्रामाण्य को स्वीकार नहीं, अस्वीकार किया है। अतः यह कहना कि अपराजितसूरि श्वेताम्बरआगमों को प्रमाण मानते हैं, एक हिमालयाकार भ्रान्ति है। अपराजितसूरि ने विजयोदयाटीका में सवस्त्रमुक्ति-निषेध के अतिरिक्त स्त्रीमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति एवं केवलिभुक्ति का भी निषेध किया है, जो यापनीयमत के विरुद्ध है। प्रस्तुत अध्याय में इन सबके प्रमाण प्रस्तुत कर सिद्ध किया गया है कि अपराजितसूरि पक्के दिगम्बर थे, उन्हें जो यापनीय मान लिया है, वह बहुत बड़ी भ्रान्ति है। पञ्चदश अध्याय-इस अध्याय में उन हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता प्रकट की गयी है, जो यापनीयपक्षधर विद्वानों ने मूलाचार को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये हैं। इसके साथ उन प्रमाणों का साक्षात्कार कराया गया है, जिनसे सिद्ध होता है कि मूलाचार शतप्रतिशत दिगम्बरग्रन्थ है। षोडश अध्याय-इस अध्याय में तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बर, यापनीय एवं कपोलकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने के लिए उपस्थित किये गये हेतुओं का निरसन कर उसे दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करनेवाले प्रमाण और युक्तियाँ विन्यस्त की गयी हैं। सप्तदश अध्याय-इस अध्याय में उपर्युक्त न्याय से तिलोयपण्णत्ती के कर्ता यतिवृषभ को दिगम्बराचार्य सिद्ध किया गया है। अष्टादश अध्याय-इस अध्याय में सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को श्वेताम्बर, यापनीय एवं उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा का आचार्य सिद्ध करनेवाले हेतुओं को असत्य या हेत्वाभास सिद्धकर वे प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन दिगम्बराचार्य हैं, अतः सन्मतिसूत्र दिगम्बरग्रन्थ है। इसमें रत्नकरण्डश्रावकार को स्वामी समन्तभद्र की कृति न मानने के पक्ष में रखे गये तर्कों का भी निरसन किया गया है और यह भी स्थापित किया गया है कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन पूज्यपाद स्वामी से पूर्ववर्ती नहीं, अपितु उत्तरवर्ती हैं। इसी प्रकार यापनीयग्रन्थ होने के पक्ष में रखे गये हेतुओं का निरसन कर दिगम्बरग्रन्थसाधक प्रमाणों के प्रस्तुतीकरण द्वारा एकोनविंश अध्याय में रविषेणकृत पद्मपुराण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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