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________________ १३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० १ ८. दिगम्बर और श्वेताम्बर १३ दोनों परम्पराओं के आगमों के अनुसार स्त्रियों को चौदह पूर्वों का ज्ञान नहीं हो सकता। और तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि आदि के दो शुक्लध्यान पूर्वविदों को होते हैं- 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' (९ / ३७) । इस तरह स्त्रियों को शुक्लध्यान भी नहीं हो सकते, जिसका अर्थ है निर्जरा का न होना और निर्जरा के न होने का अर्थ है मोक्ष का न होना । यह अपराजितसूरि को मान्य है । वे कहते हैं- " न ह्यकृतश्रुतपरिचयस्य धर्मशुक्लध्याने भवितुमर्हतः । अपायोपायभवविपाक लोकविचयादयो धर्मध्यानभेदाः । अपायादिस्वरूपज्ञानं जिनवचनबलादेव 'शुक्लेचाद्ये पूर्वविदः' इत्यभिहितत्वाच्च ।" (वि.टी. / गा. 'सज्झायं कुव्वंतो' १०३ / पृ.१३७)। इससे भी स्पष्ट है कि अपराजित सूरि को स्त्रीमुक्ति मान्य नहीं है। अपराजितसूरि की यह स्त्रीमुक्तिविरोधी मान्यता यापनीयमत के विरुद्ध है । यापनीयमत स्त्रीमुक्ति का प्रबल समर्थक है। इससे सिद्ध है कि विजयोदयाटीका के कर्त्ता यापनीयमतानुयायी नहीं हैं, अपितु दिगम्बरमतानुयायी हैं । ५ अपरिग्रहमहाव्रत का लक्षण यापनीयमत-विरुद्ध अपराजितसूरि ने मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और चतुर्विध कषाय ये चौदह आभ्यन्तर परिग्रह के भेद तथा क्षेत्र, वास्तु, धन (सुवर्णादि), धान्य (ब्रीहि आदि), कुप्य (वस्त्र), भाण्ड (वर्तन), द्विपद (दासदासी), चतुष्पद (हाथीघोड़े आदि), यान (पालकी आदि) तथा शयन और आसन ये दस बाह्यपरिग्रह के भेद बतलाये हैं। इन दोनों प्रकार के परिग्रहों के त्याग को अपरिग्रहमहाव्रत कहा है । १४ और दोनों में कारण-कार्य सम्बन्ध बतलाते हुए कहा है कि जैसे तुषसहित चावल का तुष दूर किये बिना उसके भीतर का मल नहीं हटाया जा सकता, वैसे ही बाह्यपरिग्रह का त्याग किये बिना आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग संभव नहीं है । १५ उन्होंने यह भी कहा है कि चतुर्दश प्रकार के आभ्यन्तर ग्रन्थ के त्याग से भावनैर्ग्रन्थ्य प्रकट होता है। वही मोक्ष का उपाय है। भावनैर्ग्रन्थ्य की प्राप्ति का उपाय होने से दस प्रकार के बाह्यग्रन्थ का त्याग मुमुक्षु के लिए उपयोगी है । (वि.टी./ गा. 'तो उप्पीले' ४७९ /पृ.३६६)। १३. अरहन्त-चक्किकेसवबलसंभिन्ने य चारणे पुव्वा । गणहर-पुलाय - आहारगं च न हु भविय महिलाणं ॥ १५०६ ॥ प्रवचनसारोद्धार | १४. विजयोदयाटीका / गा. 'मिच्छत्तवेदरागा' १११२, 'बाहिरसंगा' १११३ । १५. देखिए, पादटिप्पणी ४ में मूल उद्धरण । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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