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________________ अ० १४ / प्र०१ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १३७ अपरिग्रह महाव्रत की यह परिभाषा यापनीयमत के विरुद्ध है, क्योंकि इससे सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगी-मुक्ति, सबका निषेध हो जाता है, जो यापनीयमत की मौलिक मान्यताएँ हैं। इससे भी सिद्ध है कि अपराजितसूरि यापनीयमतानुयायी नहीं हैं, अपितु दिगम्बर-मतानुगामी हैं। केवलिभुक्तिनिषेध अपराजितसूरि ने केवल प्रमत्तसंयतगुणस्थान में ही मुनि को क्षुधापरीषह और भोजन की आकांक्षा बतलाई है, उससे ऊपर के गुणस्थानों में नहीं। सम्यग्दर्शन के अतीचार से सम्बन्धित शंका का समाधान करते हुए वे कहते हैं "कांक्षा, गाय॑म् आसक्तिः। सा च दर्शनस्य मलम्। यद्येवं आहारे कांक्षा, स्त्रीवस्त्रगन्धमाल्यालङ्कारादिषु वाऽसंयतसम्यग्दृष्टेर्विरताविरतस्य वा भवति। तथा प्रमत्तसंयतस्य परीषहाकुलस्य भक्ष्यपानादिषु कांक्षा सम्भवतीति सातिचारदर्शनता स्यात्। तथा भव्यानां मुक्ति-सुखाकांक्षा अस्त्येव। इत्यत्रोच्यते न कांक्षामात्रमतीचारः किन्तु दर्शनाद् व्रताद्दानादेवपूजायास्तपसश्च जातेन पुण्येन ममेदं कुलं, रूपं, वित्तं, स्त्रीपुत्रादिकं, शत्रुमर्दनं, स्त्रीत्वं, पुंस्त्वं वा सातिशयं स्यादिति कांक्षा इह गृहीता, एषा अतिचारो-दर्शनस्य।" (वि.टी./ गा. 'सम्मत्तादीचारा' ४३)। अनुवाद-"गृद्धि या आसक्ति को कांक्षा कहते हैं। वह सम्यग्दर्शन का मल है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा विरताविरत (श्रावक) को आहार की या स्त्री, वस्त्र, माला, अलंकार आदि की कांक्षा होती है। तथा परीषह से आकुल प्रमत्तसंयत मुनि को भोजन-पान आदि की कांक्षा होती है। वह भी सम्यग्दर्शन का अतिचार कहलायेगी? और भव्यों को मुक्तिसुख की आकांक्षा होती ही है। वह भी सम्यग्दर्शन का अतिचार कहलायेगी? समाधान-कांक्षामात्र अतिचार नहीं है, अपितु सम्यग्दर्शन, व्रतधारण, देवपूजा और तप से उत्पन्न हुए पुण्य से मुझे अमुक कुल, रूप, धन, स्त्रीपुत्रादि, शत्रुविनाश अथवा सातिशय स्त्रीत्व या पुरुषत्व प्राप्त हो, इस प्रकार की कांक्षा यहाँ इष्ट है। वही सम्यग्दर्शन का अतिचार है। __इस वक्तव्य में अपराजितसूरि ने यह स्पष्ट किया है कि मुनियों को क्षुधापरीषह और भोजन-पान की आकांक्षा केवल प्रमत्तसंयत (छठे ) गुणस्थान में होती है, उससे ऊपर के गुणस्थानों में नहीं। इस तरह उन्होंने 'केवली कवलाहार करते हैं', इस श्वेताम्बरीय और यापनीय-मान्यता का निषेध किया है। यह भी उनके यापनीय-मतानुयायी न होने का एक प्रमाण है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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