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१३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१४/प्र०१
यापनीयमत-विरुद्ध अन्य सिद्धान्त अपराजितसूरि ने विजयोदयाटीका में यापनीयमत-विरोधी अन्य सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन किया है। उनका यहाँ संक्षेप में निर्देश किया जा रहा है।
१. विजयोदयाटीका में गुणस्थानों के अनुसार जीव में विभिन्न भावों की योग्यता बतलायी गयी है। जैसे
"असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा संयतासंयत-गुणस्थानवाले जीव विषयराग से मुक्त तथा सकलपरिग्रह के त्यागी नहीं होते।" (वि.टी: / गा.' सिद्धे जयप्प' १)।
"असंयतसम्यग्दृष्टि तथा विरताविरत को आहार, स्त्री, वस्त्र, गन्ध, माल्य, अलंकार आदि की इच्छा होती है, और प्रमत्तसंयत को क्षुधापरीषह होता है तथा भोजन-पान की कांक्षा होती है।" (वि.टी. / गा.' सम्मत्तादीचारा'४३)।
यह गुणस्थानानुसार जीवभाव-स्वामित्व-प्रदर्शन यापनीयमत के विरुद्ध है, क्योंकि इस सिद्धान्त से सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, अन्यलिंगीमुक्ति आदि यापनीयमतों का निषेध होता है, जैसा कि उद्धरणों से स्पष्ट है।
२. विजयोदयाटीका में दिगम्बरमतानुसार साधु के मूलगुणों और उत्तरगुणों का उल्लेख है,१६ जिनमें आचेलक्य, केशलोच, स्थितिभक्त, पाणिपात्रभोजित्व आदि परिगणित हैं। ये यापनीयमत के अनुकूल नहीं हैं, क्योंकि उसके अनुसार आचेलक्य के बिना भी आपवादिक सचेललिंग से मुक्ति मानी गई है।
३. विजयोदयाटीका में वेदत्रय और वेदवैषम्य स्वीकार किये गये हैं१८ जो द्रव्यस्त्रीमुक्ति के विरोधी होने से यापनीय मत में मान्य नहीं है।
१६. वि.टी./गा. 'जदि मूलगुणे' ५८६ । १७. वि.टी./गा. 'सिद्धे जयप्प' १, 'अच्चेलक्कं लोचो' ७९, 'उत्तरगुण उज्जमणे' ११८, 'जदि
मूलगुणे उत्तरगुणे य' ५८६, 'को तस्स दिज्जइ' ५८७, 'सेवेज्ज वा' ६७७, 'गच्छंहि केइ'
१९४४, 'सव्वेसु मूलुत्तरगुणेसु' १९५०। १८. "स्त्रीपुंन्नपुंसकवेदे---" (वि.टी. /गा. 'मरणाणि सत्तरस' २५/ पृ.५९) “त्रिविधवेदोदयजनितः
प्राणिनां लिङ्गत्रयवर्तिनां परस्पराभिलाषः।" (वि.टी. / गा. 'सोक्खं अणवेक्खित्ता' १२४४), "ततो नपुंसकं वेदं स्त्रीवेदं हास्यादिषट्कं पुंवेदं सज्वलनक्रोधमानमायाः क्षपयति, पश्चाल्लोभसज्वलनम्।" ( वि.टी./गा. 'तत्तो णपुंसगित्थीवेदं' २०९१ )।
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