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________________ अ०१४ / प्र०१ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १३९ ४. अपराजितसूरि ने साधु के लिए केशलोच अनिवार्य बतलाया है और कहा है कि लोच करने से धर्म में उसकी महान् श्रद्धा का प्रदर्शन होता है, और दूसरों के मन में भी धर्म के प्रति श्रद्धा की उत्पत्ति और वृद्धि होती है। लोच से कायक्लेश नामक उग्र तप होता है और अन्य दुःखों को सहन करने की सामर्थ्य आती है। लोच का दुःख धैर्यपूर्वक सहने से अशुभकर्मों की निर्जरा होती है।९ किन्तु यापनीयमान्य श्वेताम्बर-आगम कल्पसूत्र में लोच को अनिवार्य नहीं बतलाया गया है। भिक्षुभिक्षुणियाँ कैंची और छुरे से भी मुण्डन करा सकती हैं।२० अतः केशलोच की अनिवार्यता का प्रतिपादन भी यापनीयमत के विरुद्ध है। ५. विजयोदयाटीका में साधु के लिए मांस, मधु और मद्य के सेवन का कठोरतापूर्वक निषेध किया गया है। किन्तु यापनीयमान्य श्वेताम्बर-आगम कल्पसूत्र में इनको केवल बार-बार खाने-पीने का निषेध है, सर्वथा निषेध नहीं।२२ अतः विजयोदयाटीका का यह सिद्धान्त भी यापनीयमत के विरुद्ध है। ६. अपराजितसूरि को कालद्रव्य का स्वतन्त्र अस्तित्व मान्य है।२३ किन्तु श्वेताम्बरआगमों में कालद्रव्य की स्वतंत्र सत्ता नहीं मानी गयी है। यापनीय श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण मानते थे। अतः उन्हें भी काल-द्रव्य का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार्य नहीं हो सकता। अपराजितसूरि की यह मान्यता भी यापनीयमत-विरोधी है। ७. विजयोदयाटीका में चार अनुयोगों के जो नाम दिये गये हैं, वे बिलकुल वही हैं, जो दिगम्बराचार्य समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार में उपलब्ध होते हैं, जैसे प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।" किन्तु श्वेताम्बरसाहित्य में उनके नाम इस प्रकार हैं-चरणकरणानुयोग, धर्माकथानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग। इनके अतिरिक्त अपृथक्त्वानुयोग और पृथक्त्वानुयोग ये दो नाम भी मिलते हैं।२५ यापनीय १९. वि.टी. / गा. 'अच्चेलक्कं लोचो' ७९, 'अप्पा दमिदो' ९०, 'आणक्खिदा' ९१ । २०. कल्पसूत्र / सूत्र २८३ / प्राकृतभारती जयपुर। २१. वि.टी. / गा. 'चत्तारि महावियडीओ २१५' 'एसणणिक्खेवा' १२००। २२. कल्पसूत्र / सूत्र २३७/ प्राकृतभारती जयपुर। २३. वि.टी. / गा. 'धम्माधम्मा' ३५, 'पंचेव अत्थिकाया' १७०६ । २४. "विचित्रं श्रुतं प्रथमानुयोगः करणानुयोगश्चरणानुयोगो द्रव्यानुयोग इत्यनेन विकल्पेन।" वि.टी./ गा.'वत्ता कत्ता' ५०२। २५. क- श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री : जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा / पृष्ठ १६ । ख-प्रभावकचरित्र : आर्यरक्षित /श्लोक ८२-८४। ग- आवश्यकनियुक्ति / गा. ३६३-३६७। घ-विशेषावश्यकभाष्य / गा. २२८४-२२९५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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