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________________ अ० १५ / प्र०२ मूलाचार / २३९ "आचारस्य गुणा जीदप्रायश्चित्तस्य कल्पप्रायश्चित्तस्य गुणास्तद्गतानुष्ठानानि तेषां दीपनं प्रकटनं---विनयकर्तुरिति।" (आचारवृत्ति / मूलाचार/पूर्वार्ध / गा. ३८७)। अनुवाद-"विनय करने से मुनि के आचारगुणों एवं जीतप्रायश्चित्त तथा कल्पप्रायश्चित्त के गुणों का दीपन अर्थात् प्रकटन होता है।" यदि ये ग्रन्थों के नाम होते, तो गाथा का अर्थ यह होता कि विनय करने से 'आचार' और 'जीतकल्प' नामक ग्रन्थों के गुण प्रकट होते हैं। किन्तु मुनि के विनय-तप से मुनि के ही गुण प्रकट हो सकते हैं, किसी शास्त्र के गुण नहीं। अतः उक्त गाथार्थ संगत न होने से सिद्ध है कि मूलाचार की उपर्युक्त गाथा में 'आचार' और 'जीतकल्प' शास्त्रों के नाम न होकर मुनि के ही गुणविशेषों के नाम हैं। इसलिए मूलाचार को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु भी असत्य है। अतः सिद्ध है कि मूलाचार यापनीयग्रन्थ नहीं है। ___ 'आराधनानियुक्ति' आदि दिगम्बरग्रन्थों के नाम यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"गाथा २७७-७८-७९ में कहा है कि संयमी मुनि और आर्यिकाओं को चार प्रकार के सूत्र कालशुद्धि आदि के बिना न पढ़ना चाहिए। इनसे अन्य आराधनानियुक्ति, मरणविभक्ति, संग्रहस्तुति, प्रत्याख्यान, आवश्यक और धर्मकथा आदि पढ़ना चाहिए। ये सब ग्रन्थ मूलाचार के कर्ता के समक्ष थे, परन्तु कुन्दकुन्द की परम्परा के साहित्य में इन नामों के ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं।" (जै.सा.इ. / द्वि.सं./ पृ.५५१)। प्रेमी जी और उनके अनुयायी यापनीयपक्षधर विद्वानों का आशय यह है कि ये श्वेताम्बरग्रन्थ हैं, अतः इनको पढ़ने की बात कोई श्वेताम्बर या यापनीय आचार्य ही कह सकता है। और चूँकि मूलाचार शौरसेनी प्राकृत में हैं, इसलिए यह श्वेताम्बराचार्य की कृति तो हो नहीं सकती, अतः यापनीयकृति है। दिगम्बरपक्ष मूलाचार (पूर्वार्ध) की जिस गाथा में उपर्युक्त ग्रन्थों के पठन का कथन है, वह इस प्रकार है आराहणणिज्जुत्ती मरणविभत्ती य संगहत्थुदिओ। पच्चक्खाणावासय-धम्मकहाओ य एरिसयो॥ २७९॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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